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संवरभावना : एक अनुशीलन
है। मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम आस्रवभाव हैं - इन्हें यदि एक नाम से कहना हो तो रागभाव नाम से कहा जाता है।
इसप्रकार रागभाव आस्रव हैं और इनके अभाव में होनेवाला वीतरागभाव संवर है। यह संवर ही मुक्तिमार्ग का आरंभिक प्रवेश-द्वार है। इस संवर की उत्पत्ति भेदविज्ञानपूर्वक हुई आत्मानुभूति के काल में ही होती है। अतः संवरभावना में भेदविज्ञान और आत्मानुभूति की भावना ही प्रधान है।
भेदविज्ञान मात्र दो वस्तुओं के बीच भेद जानने का नाम नहीं है। षद्रव्यमयी सम्पूर्ण लोक को स्व और पर - इन दो भागों में विभक्त कर, पर से भिन्न स्व में एकत्व स्थापित करना ही सच्चा भेदविज्ञान है। __ अनित्य, अशरण और अशुचि जड़ शरीर तो पर है ही; अपनी ही आत्मा में उत्पन्न मोह-राग-द्वेषरूप अशुचि आस्रवभाव भी पर ही हैं। जड़ शरीर एवं पुण्य-पापरूप शुभाशुभभाव तो दूर, गहराई में जाकर विचार करें तो आत्मा के आश्रय से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाले संवर, निर्जरा, मोक्षरूप वीतरागभाव (शुद्धभाव) भी पर्याय होने से पर की सीमा में ही आते हैं; स्व तो पर और पर्याय से भिन्न एकमात्र ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुव आत्मतत्त्व ही है।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के मोक्षमार्गरूप निर्मल भाव भी ध्येय नहीं हैं, श्रद्धेय नहीं हैं, परमज्ञेय भी नहीं हैं; आराध्य भी नहीं हैं । आराध्य तो अनन्तगुणों का अखण्ड पिण्ड एक चैतन्यस्वभावी निजात्मतत्त्व ही है। ___यद्यपि सभी आत्मा ज्ञानानन्दस्वभावी हैं, समान हैं; तथापि स्वयं को छोड़कर कोई अन्य आत्मा आराध्य नहीं है, श्रद्धेय नहीं है, परमज्ञेय भी नहीं हैं; क्योंकि वे सब पर हैं, प्रत्येक व्यक्ति का स्व तो निजशुद्धात्मतत्त्व ही है।
एक ओर पर और निजपर्याय से भी रहित ज्ञानानन्दस्वभावी निजशुद्धात्मतत्त्व 'स्व' है और दूसरी ओर सम्पूर्ण परपदार्थ, जिनमें परजीव भी सम्मिलित हैं तथा पर के लक्ष्य से निजात्मा में ही उत्पन्न होनेवाले मोह-रागद्वेषरूप शुभाशुभभाव एवं निजात्मा के आश्रय से निजात्मा में ही उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागभाव हैं; ये सभी 'पर' हैं।