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________________ ११४ संवरभावना : एक अनुशीलन यह जानना पहिचानना ही ज्ञान है श्रद्धान है। केवल स्वयं की साधना आराधना ही ध्यान है ॥ यह ज्ञान यह श्रद्धान बस यह साधना आराधना । बस यही संवरतत्त्व है, बस यही संवरभावना ॥३॥ यह जानना ही सम्यग्ज्ञान है, यह पहिचानना ही सम्यग्दर्शन है और मात्र अपनी साधना अपनी आराधना ही सम्यक्चारित्र है, ध्यान है। यह ज्ञान-श्रद्धान एवं यही साधना-आराधना ही संवरतत्त्व है और यही संवरभावना भी है। इस सत्य को पहिचानते वे ही विवेकी धन्य हैं। धुवधाम के आराधकों की बात ही कुछ अन्य है ॥ शुद्धातमा को जानना ही भावना का सार है। धुवधाम की आराधना आराधना का सार है ॥४॥ जो जीव इस सत्य को जानते हैं, पहिचानते हैं; वे ही विवेकी हैं, वे ही धन्य हैं; क्योंकि ध्रुवधाम निज भगवान के आराधकों की बात ही कुछ और होती है, गजब की होती है। संवरभावना का सार शुद्धात्मा को जानना ही है और ध्रुवधाम निज भगवान की आराधना ही आराधना का सार है। स्वभाव से तो प्रत्येक आत्मा स्वयं ज्ञानानन्दस्वभावी परिपूर्ण तत्व है ही, पर्याय में भी पूर्णता प्राप्त करने के लिए उसे पर की ओर झांकने की आवश्यकता नहीं। यह स्वयं अपनी भूल से दुःखी है और स्वयं अपनी भूल मेटकर सुखी भी हो सकता है। प्रत्येक आत्मा स्वयं भगवानस्वरूप है और यदि पुरुषार्थ करे तो भगवानस्वरूप आत्मा की अनुभूति करने में भी समर्थ है। - सत्य की खोज, पृष्ठ २०१
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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