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मेरी भावना
इस कृति के साहित्यिक मूल्य एवं सामाजिक उपयोगिता के बारे में मुझे कुछ भी नहीं कहना है; क्योंकि यह कार्य साहित्य-समीक्षकों एवं समाजशास्त्रीय विद्वानों का है; पर यह कहने में मुझे रंचमात्र भी संकोच नहीं है कि इस कृति के प्रणयन ने इस संक्रान्ति काल में मुझे अद्भुत बल प्रदान किया है, मेरे चित्त को अपेक्षाकृत बहुत कुछ शान्त और स्थिर रखा है ।
आत्मधर्म का संपादक होने के कारण पूज्य गुरुदेव श्री के महाप्रयाण से उत्पन्न विषमताओं के तूफानी वेग के थपेड़ों का मूल केन्द्रबिन्दु विगत चार वर्षों से लगभग मैं ही बना रहा हूँ ।
परिस्थितियों के दुश्चक्र एवं छल-बल के अदभुत प्रयोगों से बार-बार छला जाकर भी निराश नहीं हुआ, पथभ्रष्ट नहीं हुआ; अपने सुनिश्चित पथ पर आज भी अडिग हूँ, निरन्तर गतिशील भी हूँ, पहले की अपेक्षा अब अपने को अधिक स्वाधीन एवं सशक्त अनुभव करता हूँ भावनाओं के निरन्तर अनुशीलन का ही सुपरिणाम है, जिन्होंने मनोबल को कभी टूटने नहीं दिया और आत्महित के लिए सदैव जागृत रखा।
यह सब उन बारह
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आत्महित की प्रबल प्रेरक इन बारह भावनाओं के इस अनुशीलन ने चित्त को अघट घटनाओं में उलझने से बहुत-कुछ विरक्त रखा, लिप्त नहीं होने दिया। परिणामस्वरूप आत्मोन्मुखी चित्तवृत्तियाँ यहाँ-वहाँ न भटककर रचनात्मक कार्यों में संलग्न रहीं ।
बारह भावनाओं के चिन्तन में संयोगों की अनित्यता, अशरणता, असारता आदि का जो अविरल चिन्तन चला; घटित घटनाओं का वैचित्र्य उस चिन्तन का उदाहरण मात्र बनकर रह गया, चित्त को विचलित न कर सका, अधिक चंचल न कर सका ।
इसप्रकार इस अनुशीलन से घटना - वैचित्र्य को अविचल सहज ज्ञातादृष्टाभाव से देखते- जानते रहने का अद्भुत सामर्थ्य जागृत हुआ है, जिसने सहज आत्मशान्ति का मार्ग प्रशस्त किया है।
इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि वर्तमान घटनाओं ने मेरे चित्त को विभक्त नहीं किया है, आन्दोलित नहीं किया है या मैं उनसे पूर्णतः अलिप्त