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आस्रवभावना : एक अनुशीलन
कारण हैं। पुण्य-पाप और आस्रव-बंध परस्पर इसप्रकार अनुस्यूत हैं कि उनका संपूर्णतः पृथक्-पृथक् चिन्तन करना सहजसाध्य नहीं है।
विरागी विवेकियों की प्रवृत्ति सहजसाध्य कार्यों में ही देखी जाती है, मुक्तिमार्ग भी सहजसाध्य ही है; अतः ज्ञानीजनों का चिन्तन भी सहजसाध्य ही होता है।
प्रश्न : पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध तत्त्वों का चिन्तन तो आस्रवभावना में होता है; पर जीव और अजीव तत्त्व का चिन्तन कौन-सी भावना में होगा? क्योंकि आस्रव, बंध, पुण्य और पाप के पहले जीव-अजीव तत्त्वों का चिंतन भी तो होना चाहिए।
उत्तर : जीव का चिन्तन तो सभी भावनाओं में समानरूप से चलता ही है, चिन्तन का मूल आधार तो वही है। आस्रवभावना में भी इसका चिन्तन होता है - यह स्पष्ट किया ही जा चुका है। ___ 'जीव नित्य है, आस्रव अनित्य हैं; जीव ध्रुव है, आस्रव अध्रुव हैं; जीव सशरण है, आस्रव अशरण हैं; जीव शुचि है, आस्रव अशुचि हैं; जीव चेतन है, आस्रव जड़ हैं, जीव सुखस्वरूप है, आस्रव दुःखस्वरूप हैं; जीव सुख का कारण है, आस्रव दुःख के कारण हैं।' - उक्त कथन में आस्रव के साथ जीव का भी चिन्तन आया ही है।
आरम्भ की छह भावनाओं में शरीरादि अजीवों से जीव की भिन्नता बताई है और यहाँ आस्रव, बन्ध, पुण्य और पाप से भिन्नता बताई जा रही है। शरीर अनित्य है, अशरण है, असार है, अशुचि है, जीव से भिन्न है और जीव शरीर से भिन्न है, ध्रुव है, परमशरण है, सार है, शुचि है -यह सब जीव-अजीव तत्त्वों का ही तो चिन्तन है।
भेदविज्ञान की दृष्टि से इन भावनाओं की चिन्तनप्रक्रिया का भी संकेत पहले किया जा चुका है। आरंभ की छह भावनाओं में अजीव से जीव का भेदज्ञान कराया गया है और इस आस्रवभावना में आस्रव, बंध, पुण्य और पाप से भेदज्ञान कराया जा रहा है।