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आस्रवभावना : एक अनुशीलन
सर्व जीवों के जीवन-मरण, सुख-दुःख अपने कर्म के निमित्त से होते हैं। जहाँ अन्य जीव अन्य जीव के इन कार्यों का कर्ता हो, वह मिथ्याध्यवसाय बन्ध का कारण है। वहाँ अन्य जीवों को जिलाने का अथवा सुखी करने का अध्यवसाय हो, वह तो पुण्यबन्ध का कारण है और मारने का अथवा दुःखी करने का अध्यवसाय हो, वह पापबन्ध का कारण है।
इसप्रकार अहिंसावत् सत्यादिक तो पुण्यबंध के कारण हैं और हिंसावत् असत्यादिक पापबन्ध के कारण है। ये सर्व मिथ्याध्यवसाय हैं, वे त्याज्य हैं; इसलिए हिंसादिवत् अहिंसादिक को भी बन्ध का कारण जानकर हेय ही मानना। __ हिंसा में मारने की बुद्धि हो; परन्तु उसकी आयु पूर्ण हुए बिना मरता नहीं है, यह अपनी द्वेषपरिणति से आप ही पाप बाँधता है। अहिंसा में रक्षा करने की बुद्धि हो; परन्तु उसकी आयु अवशेष हुए बिना वह नहीं जीता है, यह अपनी प्रशस्त रागपरिणति से आप ही पुण्य बाँधता है । इसप्रकार यह दोनों हेय हैं; जहाँ वीतराग होकर ज्ञाता-दृष्टारूप प्रवर्ते, वहाँ निर्बन्ध है; सो उपादेय है।
सो जबतक ऐसी दशा न हो, तबतक प्रशस्तरागरूप प्रवर्तन करो; परन्तु श्रद्धान तो ऐसा रखो कि यह भी बन्ध का कारण है, हेय है; श्रद्धान में इसे मोक्षमार्ग जाने तो मिथ्यादृष्टि ही होता है।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि बन्ध के हेतु होने से पापास्रव के समान पुण्यास्रव भी हेय ही हैं।
यद्यपि आस्रवभावना में पुण्य और पाप - दोनों प्रकार के आस्रवों की हेयता का चिन्तन किया जाता है; तथापि गहराई में जाकर विचार करें तो पापास्रवों की अपेक्षा पुण्यात्रवों की हेयता का अधिक विचार करना ही वास्तविक आस्रवभावना है; क्योंकि पापभावों को तो सभी हेय जानते हैं, मानते हैं, कहते भी हैं; ज्ञानीजन तो वे हैं, जिन्हें पुण्यभाव भी हेय प्रतिभासित हों। मुख्यरूप से जिन मुनिराजों के ये भावनाएँ होती हैं, उनके तो प्रायः पापभाव
१. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २२६