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अशुचिभावना : एक अनुशीलन
जिस शरीर की समीपता के कारण उत्तम माला आदि पदार्थ छूने के योग्य नहीं रहते हैं, जो मल-मूत्रादि से भरा हुआ है, रस-रुधिरादि सप्तधातुओं से रचा गया है, भयानक है, दुर्गन्ध से युक्त है तथा जो निर्मल आत्मा को भी मलिन करता है, समस्त अपवित्रताओं के एक संकेतगृह के समान यह मनुष्यों का शरीर जल के स्नान से कैसे शुद्ध हो सकता है?" इसी बात को समझाते हुए मंगतरायजी कहते हैं :
"तू नित पोखे यह सूखे ज्यों धोवे त्यों मैली । निश-दिन करे उपाय देह का रोग दशा फैली ॥ मात-पिता रज-वीरज मिलकर बनी देह तेरी । माँस हाड़ नश लहू राध की प्रगट व्याधि घेरी ॥ काना पौंडा पड़ा हाथ यह चूसे तो रोवै । फले अनन्त जु धर्मध्यान की भूमि विर्षे बोवै॥ केशर चन्दन पुष्प सुगन्धित वस्तु देख सारी ।
देह परस तैं होय अपावन निशदिन मल जारी ॥ ज्यों-ज्यों तू इस देह को पुष्ट करता है, त्यों-त्यों ही यह सूखती जाती है; तथा ज्यों-ज्यों धोता है, त्यों-त्यों मैली होती जाती है। यद्यपि तू इसे स्वस्थ रखने के प्रयत्न में दिन-रात लगा रहता है, तथापि यह रोगों से ही घिरती जाती है। माता-पिता के रज-वीर्य से निर्मित यह तेरी देह रक्त, माँस, पीप, हाड़, नस की व्याधियों से निरन्तर घिरी ही रहती है। ___ यह देह काने गन्ने के समान तेरे हाथ पड़ गई है। तू इसे चूसने का प्रयोग करेगा तो रोना पड़ेगा। यदि इस काने गन्नेरूपी रोगी देह को धर्मध्यानरूपी भूमि में बो देगा तो अनन्तसुखरूप फलेगी। निरन्तर मल बह रहा है-ऐसी इस देह के स्पर्शमात्र से सुगन्धित केशर, चन्दन एवं फूल अपवित्र हो जाते हैं।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का संक्षिप्त सार मात्र इतना ही है कि स्वभाव से ही अशुचि देह के ममत्व एवं अनुराग में ही यह दुर्लभ नरभव गमा देना उचित
१. मंगतराय कृत बारह भावना