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________________ शील अठदशसहस उत्तर गुण कहे चौरासी लख। भा भावना इन सभी की इससे अधिक क्या कहें हम।।१२०॥ रौद्रात वश चिरकाल से दुःख सहे अगणित आजतक। अबतज इन्हेंध्या धरमसुखमयशुक्ल भव के अन्ततक॥१२१॥ इन्द्रिय-सुखाकुल द्रव्यलिंगी कर्मतरु नहिं काटते। पर भावलिंगी भवतरु को ध्यान करवत काटते॥१२२।। ज्यों गर्भगृह में दीप जलता पवन से निर्बाध हो। त्यों जले निज में ध्यान दीपक राग से निर्बाध हो॥१२३॥ शुद्धात्म एवं पंचगुरु का ध्यान धर इस लोक में। वे परम मंगल परम उत्तम और वे ही हैं शरण ॥१२४॥ (६८)
SR No.009443
Book TitleAshtapahud Padyanuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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