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जिसमें परिग्रह नहीं अन्तर्बाह्य तिलतुषमात्र भी ।
सर्वज्ञ के जिनमार्ग में जिनप्रव्रज्या ऐसी कही ॥५५॥ परिषह सहें उपसर्ग जीतें रहें निर्जन देश में । शिला पर या भूमितल पर रहें वे सर्वत्र ही ॥ ५६ ॥ पशु - नपुंसक - महिला तथा कुस्शीलजन की संगति । ना करें विकथा ना करें रत रहें अध्ययन - ध्यान में ॥५७॥ सम्यक्त्व संयम तथा व्रत-तप गुणों से सुविशुद्ध हो । शुद्ध हो सद्गुणों से जिन प्रव्रज्या ऐसी कही ॥ ५८ ॥ आयतन से प्रव्रज्या तक यह कथन संक्षेप में । सुविशुद्ध समकित सहित दीक्षा यों कही जिनमार्ग में ॥ ५९ ॥
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