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परिषहजयी जितकषायी निर्ग्रन्थ है निर्मोह है। है मुक्त पापारंभ से ऐसी प्रव्रज्या जिन कही॥४५।। धन-धान्य पट अर रजत-सोना आसनादिक वस्तु के। भूमि चंवर-छत्रादि दानों से रहित हो प्रव्रज्या।।४६।। जिनवर कही है प्रव्रज्या समभाव लाभालाभ में। अर कांच-कंचन मित्र-अरि निन्दा-प्रशंसा भाव में॥४७॥ प्रव्रज्या जिनवर कही सम्पन्न हों असंपन्न हों। उत्तम मध्यम घरों में आहार लें समभाव से॥४८॥ निर्ग्रन्थ है नि:संग है निर्मान है नीराग है। निर्दोष है निरआश है जिन प्रव्रज्या ऐसी कही॥४९॥
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