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जो चाहता नहिं आतमा वह आचरण कुछ भी करे। पर सिद्धि को पाता नहीं संसार में भ्रमता रहे ।।१५।। बस इसलिए मन वचन तन से आत्म की आराधना। तुम करो जानो यत्न से मिल जाय शिवसुख साधना॥१६॥ बालाग्र के भी बराबर ना परीग्रह हो साधु के। अर अन्य द्वारा दत्त पाणीपात्र में भोजन करें।।१७।। जन्मते शिशुवत् अकिंचन नहीं तिल-तुष हाथ में। किंचित् परीग्रह साथ हो तो श्रमण जाँयें निगोद में॥१८॥ थोड़ा-बहुत भी परिग्रह हो जिस श्रमण के पास में। वह निन्द्य है निर्ग्रन्थ होते जिनश्रमण आचार में ॥१९॥
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