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जिनसूत्र में जीवादि बहुविध द्रव्य तत्त्वारथ कहे । हैं हेय पर व अहेय निज जो जानते सदृष्टि वे ॥५॥ परमार्थ या व्यवहार जो जिनसूत्र में जिनवर कहे । सब जान योगी सुख लहें मलपुंज का क्षेपण करें || ६ || सूत्रार्थ से जो नष्ट हैं वे मूढ़ मिथ्यादृष्टि हैं । तुम खेल में भी नहीं धरना यह सचेलक वृत्तियाँ ॥ ७ ॥ सूत्र से हों भ्रष्ट जो वे हरहरी सम क्यों न हों । स्वर्गस्थ हों पर कोटि भव अटकत फिरें ना मुक्त हों ॥८॥ सिंह सम उत्कृष्टचर्या हो तपी गुरु भार हो । पर हो यदी स्वच्छन्द तो मिथ्यात्व है अर पाप हो ॥ ९ ॥
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