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अनेकान्त और स्याद्वाद
यद्यपि प्रत्येक वस्तु अनेक परस्पर विरोधी धर्म-युगलों का पिण्ड है; तथापि वस्तु में सम्भाव्यमान परस्पर विरोधी धर्म ही पाये जाते हैं, असम्भाव्य नहीं। अन्यथा आत्मा में नित्यत्व-अनित्यत्वादि के समान चेतन-अचेतनत्व धर्मों की सम्भावना का प्रसंग आयेगा।
इस बात को 'धवला' में इसप्रकार स्पष्ट किया है -
"प्रश्न : जिन धर्मों का एक आत्मा में एक साथ रहने का विरोध नहीं है, वे रहें; परन्तु सम्पूर्ण धर्म तो एक साथ एक आत्मा में रह नहीं सकते ?
उत्तर : कौन ऐसा कहता है कि परस्पर विरोधी और अविरोधी समस्त धर्मों का एक साथ एक आत्मा में रहना सम्भव है ? यदि सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जायेगा। इसलिए सम्पूर्ण परस्पर विरोधी धर्म एक आत्मा में रहते हैं, अनेकान्त का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए; किन्तु जिन धर्मों का जिस आत्मा में अत्यन्त अभाव नहीं, वे धर्म उस आत्मा में किसी काल और किसी क्षेत्र की अपेक्षा युगपत् भी पाये जा सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं।" __ अनेकान्त और स्याद्वाद का प्रयोग करते समय यह सावधानी रखना बहुत आवश्यक है कि हम जिन परस्पर विरोधी धर्मों की सत्ता वस्तु में प्रतिपादित करते हैं, उनकी सत्ता वस्तु में सम्भावित है भी या नहीं; अन्यथा कहीं हम ऐसा भी न कहने लगे कि कथंचित् जीव चेतन है व कथंचित् अचेतन भी। अचेतनत्व की जीव में सम्भावना ही नहीं है; अत: यहाँ अनेकान्त बताते समय अस्तिनास्ति के रूप में घटाना चाहिए। जैसे - जीव चेतन (ज्ञान-दर्शन स्वरूप) ही है, अचेतन नहीं। ___ वस्तुतः चेतन और अचेतन तो पस्स्पर विरोधी धर्म हैं और नित्यत्वअनित्यत्व परस्पर विरोधी नहीं, विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म हैं; वे परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, हैं नहीं। उनकी सत्ता एक द्रव्य में एक साथ पाई जाती है। अनेकान्त परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का प्रकाशन करता है।
१. धवला पु. १, खण्ड १, भाग १, सूत्र ११, पृष्ठ १६७