________________
दशकरण चर्चा यदि सभी जीव कर्म के उदय से सुखी-दुःखी होते हैं और वे तुझे कर्म तो देते नहीं हैं, तो फिर उन्होंने तुझे दुःखी कैसे किया?'
यदि सभी जीव कर्म के उदय से सुखी-दुःखी होते हैं और वे तुझे कर्म तो देते नहीं हैं; तो फिर उन्होंने तुझे सुखी कैसे किया?"
आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने मात्र दो ही कलश काव्य में इस विषय को अत्यन्त स्पष्ट किया है; जिनका हिन्दी अनुवाद इसप्रकार है - ____ "इस जगत में जीवों के मरण, जीवन, दुःख व सुख सब सदैव नियम से अपने कर्मोदय से होते हैं। कोई दूसरा पुरुष किसी दूसरे पुरुष के जीवन-मरण और सुख-दुःख को करता है - ऐसी मान्यता अज्ञान
इस अज्ञान के कारण जो पुरुष एक पुरुष के जीवन-मरण और सुख-दुःख को दूसरे पुरुष के द्वारा किये हुए मानते हैं, जानते हैं; पर कर्तृत्व के इच्छुक वे पुरुष अहंकार से भरे हुए हैं और आत्मघाती मिथ्यादृष्टि हैं।"
इस तरह और भी अनेक आचार्यों ने उदयकरण का उपयोग अध्यात्म के पोषण के लिए किया है।
उदयकरण के संबंध में ब्र. जिनेन्द्र वर्णीजी के कथन का विषय समझने के लिए विशेष उपयोगी होने से आगे दे रहे हैं -
“निष्कर्ष यह है कि प्रतिसमय एक समयप्रबद्ध कर्म बंधता है और एक ही समयप्रबद्ध उदय में आता है। एक समय में बंधा द्रव्य अनेक समयों में उदय में आता है। तथैव एक समय में उदय में आने वाला द्रव्य अनेक समयों में बंधा हुआ होता है। इससे यह भी सिद्ध होता है
कि वर्तमान एक समय में प्राप्त जो सुख-दुःख आदिरूप फल है, वह किसी एक समय में बंधे विवक्षित कर्म का फल नहीं कहा जा सकता; बल्कि संख्यातीत काल में बंधे अनेक कर्मों का मिश्रित एक रस होता है। फिर भी उस एक रस में मुख्यता उसी निषेक की होती है, जिसका अनुभाग सर्वाधिक होता है।" बंध और उदय की समानता-असमानता कहाँ-कहाँ हैं -
बन्ध के अनुसार डिग्री टु डिग्री उदय नहीं होता; क्योंकि बन्ध और उदय के बीच में सत्ता की एक बहत चौड़ी और बड़ी खाई है, जिसमें प्रतिक्षण कुछ न कुछ परिवर्तन होते रहते हैं।
जैसा कर्म बंधा है, वैसा का वैसा ही उदय में आए, ऐसा कोई नियम नहीं है, सत्ता में रहते हुए उस बद्ध कर्म को अनेक परिवर्तनों में से गुजरना पड़ता है। ___बन्ध और उदय की पूर्वोक्त व्याप्ति सुनकर आत्मार्थी एवं मुमुक्षु साधक को घबराना नहीं चाहिए। शेष सात करणों में से उद्वर्तन (उत्कर्षण), अपवर्तन (अपकर्षण), संक्रमण, उदीरणा और उपशमन, ये पाँच करण उसकी सहायता के लिए हरदम तैयार हैं।
उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा और उपशमन ही वस्तुतः ऐसी परिवर्तनीय अवस्थायें (करण) हैं, जिसमें से सत्तागत कर्मों को गुजरना पड़ता है। अगर साधक लक्ष्य की दिशा में डटकर परिवर्तन के लिए कटिबद्ध हो जाए तो कर्मों की निर्जरा और क्षय होते देर नहीं लगेगी।"
इसप्रकार उदयकरण के माध्यम से जीव ही बलवान है, कर्म नहीं; इस विषय को स्पष्ट करने का प्रयास किया है और उदयकरण का स्वरूप भी स्पष्ट किया।
१-२. गाथा समयसार, पृष्ठ७६, गाथा-२५५, २५६ ४. समयसार कलश - १६८, १६९, पृष्ठ ३७४
१. कर्मसिद्धान्त, ब्र. जिनेन्द्र वर्णी पृ. ९६, ९७ से भावग्रहण 11 २. कर्मसिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. ९३
(42)