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आगमगर्भित प्रश्नोत्तर
1. प्रश्न :- सत्त्व अथवा सत्ता किसे कहते हैं?
उत्तर :- अनेक समयों में बँधे हुए कर्मों का विवक्षित काल तक जीव के प्रदेशों के साथ अस्तित्व होने का नाम सत्त्व है।
2. प्रश्न :- सत्त्व के कितने भेद हैं?
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उत्तर :- सत्त्व भी चार प्रकार का है प्रकृति सत्त्व, प्रदेश सत्त्व, स्थिति सत्त्व और अनुभाग सत्त्व ।
3. प्रश्न :- कर्मों की सत्त्वयोग्य प्रकृतियाँ कितनी हैं ?
उत्तर :- ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों की क्रम से ज्ञानावरण कर्म ५ + दर्शनावरण कर्म ९ + वेदनीय कर्म २ + मोहनीय कर्म २८ + आयुकर्म ४ + नाम कर्म ९३ + गोत्र कर्म २ + अन्तराय कर्म ५ = १४८ प्रकृतियाँ सत्त्वयोग्य हैं। (यह कथन नाना जीवों की अपेक्षा से है ।) 4. प्रश्न :- पुण्य प्रकृतियाँ कितनी और कौन-सी हैं ?
उत्तर :- सातावेदनीय, तीन आयु (तिर्यंच, मनुष्य और देव), उच्च गोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, तीन अंगोपांग, शुभवर्ण५, शुभगंध २, शुभ रस ५, शुभस्पर्श ८, समचतुरस्र संस्थान, वज्रवृषभनाराचसंहनन, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशस्कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर ये ६८ प्रकृतियाँ पुण्य रूप हैं।
5. प्रश्न :- पाप प्रकृतियाँ कितनी और कौन-सी हैं ?
3D.Kala
Annanji Adhyatmik Duskaran Book
(27)
आगमगर्भित प्रश्नोत्तर (सत्त्वकरण) अ. २
उत्तर :- घातिया कर्मों की ४७ प्रकृतियाँ, नीचगोत्र, असातावेदनीय, नरक आयु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय आदि ४ जातियाँ, समचतुरस्र संस्थान को छोड़कर शेष पाँच संस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन को छोड़कर शेष पाँच संहनन, अशुभ वर्ण ५, अशुभ रस ५, अशुभ गन्ध २, अशुभ स्पर्श ८, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति ये १०० पाप प्रकृतियाँ हैं ।
पुण्यप्रकृतियों की संख्या ६८ और पापप्रकृतियों की संख्या १०० दोनों का जोड़ हुआ १६८, उत्तरप्रकृतियों की संख्या १४८ है । यहाँ २० प्रकृतियों की बढ़ोत्तरी इसलिए हुई कि स्पर्शादि २० प्रकृतियाँ पुण्य रूप भी हैं और पाप रूप भी हैं। इसलिए दोनों जगह उनकी गिनती हुई है। ६. प्रश्न: सत्त्व (सत्ता) करण का स्वरूप क्या है?
१. सत्त्व शब्द से यहाँ कर्मों की सत्ता विवक्षित है। (करणदशक, पृष्ठ ७३) २. कर्मस्कन्ध जीव- प्रदेशों से सम्बद्ध होकर कर्मरूप पर्याय से परिणत होने के प्रथम समय में बन्ध व्यपदेश को प्राप्त होते हैं और वे ही कर्मपरमाणु फलदान के समय (उदय क्षण) से पहले समय तक 'सत्त्व' इस संज्ञा को प्राप्त होते हैं।
३. बन्ध ही बँधने के दूसरे समय से लेकर निर्लेपन अर्थात् क्षपण होने के अन्तिम समय तक सत्कर्म या सत्त्व कहलाता है। ४. बन्ध के पश्चात् सत्त्व होता है। जब तक उस कर्म का वेदन होकर वह अकर्मभाव को प्राप्त नहीं होता तब तक उस कर्म का 'सत्त्व '
१. ध. ६ पृष्ठ २०१, २०२