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आत्मा ही है शरण
बातों में इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है । अतः यह मंगलभावना भाते हुए विराम लेता हूँ कि सभी आत्माएं स्वयं के परमात्मस्वरूप को जानकर, पहिचानकर स्वयं में ही जमकर, रमकर अनन्त सुख-शान्ति को शीघ्र ही प्राप्त करे ।
इसप्रकार का एक व्याख्यान तो लगभग सभी स्थानों पर हुआ ही ।
१२ जून, १९८७ को हम वाशिंगटन डी. सी. पहुँचे, जहाँ प्रतिवर्ष की भाँति शिविर आयोजित था । जो भाई शिविर में सम्मिलित नहीं हो पाते हैं, उनकी सुविधा को ध्यान में रखकर १२ जून की शाम कॉलेज के एक हाल में कार्यक्रम रखा गया । इसमें आत्मानुभव पर बड़ा ही मार्मिक प्रवचन हुआ, जिससे शिविर में आनेवालों की संख्या में भी वृद्धि हुई । शिविर में न्यूजर्सी, टोरन्टों आदि स्थानों से भी अनेक लोग आये थे ।
शिविर में प्रतिपादित विषयवस्तु के सन्दर्भ में वाशिंगटन डी.सी. से प्रकाशनार्थ प्राप्त समाचार का सारांश दे देना ही उपयुक्त प्रतीत होता है, जो इसप्रकार है - __ "जैन सोसाइटी ऑफ मेट्रोपालिटन, वाशिंगटन ने १३ जून, १९८७ से १५ जून, १९८७ तक सुन्दरतम पर्वतीय प्रदेश में स्थित सेन्टमेरी कॉलेज में एक प्रौढ़ धार्मिक शिक्षण-शिविर का आयोजन किया, जिसमें प्रसिद्ध दार्शनिक विचारक एवं आध्यात्मिक प्रवक्ता डॉ. हुकमचंदजी भारिल्ल से विभिन्न जैन सिद्धान्तों को सरल भाषा व सरस शैली में समझकर सभी को अभूतपूर्व आनन्द हुआ।
प्रथम दिन द्रव्य-गुण-पर्याय पर दो व्याख्यान एवं चर्चा हुई, जिसमें प्रवचनसार गाथा ८0 का मुख्य आधार रहा । इसी दिन एक शिविरार्थी के अनुरोध पर तीसरा व्याख्यान समयसार गाथा १४ पर हुआ, जो बहुत ही प्रेरक रहा; इसीप्रकार प्रश्नोत्तर भी अच्छे रहे । रात्रि में जनरल प्रश्नोत्तर