________________
आत्मा ही है शरण
को जानो और स्वयं में समा जावो । सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है।
कहते-कहते गुरु स्वयं में समा जाते हैं और वह भव्यात्मा भी स्वयं में समा जाता है । जब उपयोग बाहर आता है तो उसके चेहरे पर अपूर्व शान्ति होती है, संसार की थकान पूर्णतः उतर चुकी होती है, पर्याय की पामरता का कोई चिन्ह चेहरे पर नहीं होता, स्वभाव की सामर्थ्य का गौरव अवश्य झलकता है ।
आत्मज्ञान, श्रद्धान एवं आंशिक लीनता से आरम्भ मुक्ति के मार्ग पर आरूढ़ वह भव्यात्मा चक्रवर्ती की सम्पदा और इन्द्रों जैसे भोगों को भी तुच्छ समझने लगता है । कहा भी है
" चक्रवर्ती की सम्पदा अर इन्द्र सारिखे भोग । कागवीट सम गिनत हैं सम्यग्दृष्टि लोग ॥"
84
1
पिता के मित्र रिक्शेवाले युवक से यह वात रिक्शा स्टेण्ड पर ही कर रहे थे । उनकी यह सब वात रिक्शे पर बैठे-बैठे ही हो रही थी । इतने में एक सवारी ने आवाज दी
"ऐ रिक्शेवाले । स्टेशन चलेगा ?"
उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया "नहीं ।"
-
-
wwwd
"क्यों ? चलो न भाई, जरा जल्दी जाना है, दो रुपये की जगह पाँच रुपये लेना, पर चलो, जल्दी चलो ।"
"नहीं; नहीं जाना, एक बार कह दिया न ।”
"कह दिया पर
उसकी बात जाने दो, अब मैं आपसे ही पूछता हूँ कि क्या वह अब भी सवारी ले जायगा ? यदि ले जायेगा तो कितने में ? दस रुपये में, बीस रुपये में
?