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________________ आत्मा ही है शरण अन्य समाजों की अपेक्षा जैनसमाज अधिक शिक्षित समाज है; अतः विदेशगमन में भी वह अग्रगण्य रहा। ध्यान रहे जैनसमाज की समस्त उपलब्धियाँ प्रतिभा, साहस, उद्यम और परिश्रम का ही परिणाम हैं; क्योंकि अल्पसंख्यक होने से 'बहुमत के आधार पर उपलब्ध होनेवाली उपलब्धियों का तो प्रश्न ही नहीं उठता; अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में होने के कारण उसे वे लाभ भी प्राप्त नहीं हो सके हैं, जो इस युग में अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्गों को मिलते रहे हैं। 2 जो भी हो, आज अकेले अमेरिका (यू.एस.ए.) में ही पचास हजार जैन रहते हैं। लन्दन (यू.के.) में भी हजारों जैनबन्धु रहते हैं। जो पीढ़ी भारत से स्वयं वहाँ गई है, उसे तो अपनी संस्कृति और मातृभाषा का सामान्य परिचय है; कुछ लोग थोड़े-बहुत तत्त्वज्ञान से भी परिचित हैं; पर जो पीढ़ी वहाँ ही जन्मी है, वह अपनी संस्कृति, मातृभाषा और जैन तत्त्वज्ञान से लगभग पूर्णतः अपरिचित ही है। सर्वाधिक चिन्ता की बात तो यह है कि मातृभाषा के ज्ञान के अभाव में माध्यम ही समाप्त-सा होता जा रहा है। इसप्रकार हम देखते हैं कि विदेशों में बसे जैनबन्धुओं के सामने आज अपनी संस्कृति और तत्त्वज्ञान की सुरक्षा का अहं सवाल उपस्थित है। इस समस्या के समुचित समाधान के लिए विदेशों में बसा जैनसमाज चिंतित भी है; चिंतित ही नहीं, अपनी शक्ति और सुविधा के अनुसार तदर्थ सक्रिय भी है। इस बात का गहरा अनुभव मैंने अपनी इस विदेशयात्रा में गहराई से किया है। मेरी इस विदेशयात्रा का एकमात्र मूल उद्देश्य यू.एस.ए. और यू.के. में बसे जैन बन्धुओं तक जैन तत्त्वज्ञान के मर्म को पहुँचाना ही था । साथ ही मैं यह अध्ययन भी करना चाहता था कि विदेशों में बसे जैनबन्धुओं में जैन तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार की क्या संभावनाएँ हैं ?
SR No.009440
Book TitleAatma hi hai Sharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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