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आत्मा ही है शरण
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निज भगवान आत्मा में अपनापन ही सम्यग्दर्शन है और निज भगवान आत्मा से भिन्न देहादि पदार्थों में अपनापन ही मिथ्यादर्शन है।
.. अपनेपन की महिमा अद्भुत है । अपनेपन के साथ अभूतपूर्व उल्लसित परिणाम उत्पन्न होता है । आप प्लेन में बैठे विदेश जा रहे हों; हजारों विदेशियों के बीच किसी भारतीय को देखकर आपका मन उल्लसित हो उठता है । जब आप उससे पूछते हैं कि आप कहाँ से आये हैं ? तब वह यदि उसी नगर का नाम ले दे, जिस नगर के आप हैं तो आपका उल्लास द्विगुणित हो जाता है । यदि वह आपकी ही जाति का निकले तो फिर कहना ही क्या है ? यदि वह दूसरी जाति, दूसरे नगर या दूसरे देश का निकले तो उत्साह ठडा पड़ जाता है।
इस उल्लास और ठंडेपन का एकमात्र कारण अपनेपन और परायेपन की अनुभूति ही तो है । अपने में अपनापन आनन्द का जनक है, परायों में अपनापन आपदाओं का घर है, यही कारण है कि अपने में अपनापन ही साक्षात् धर्म है और परायों में अपनापन महा-अधर्म है।।
अपने में से अपनापन खो जाना ही अनन्त दुःखों का कारण है और अपने में अपनापन हो जाना ही अनन्त सुख का कारण है । अनादिकाल से यह आत्मा अपने को भूलकर ही अनन्त दुःख उठा रहा है और अपने को जानकर, पहिचानकर, अपने में ही जमकर, रमकर, अनन्त सुखी हो सकता है ।
दुःखों से मुक्ति के मार्ग में अपने में अपनापन ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण
है।
__एक सेठ था और उसका एक दो-ढाई वर्ष का इकलौता बेटा । घर के सामने खेलते-खेलते वह कुछ आगे बढ़ गया । घर की खोज में वह दिग्भ्रमित हो गया और पूर्व के बजाय पश्चिम की ओर बढ़ गया । बहुत खोजने पर भी उसे अपना घर नहीं मिला । घरवालों ने भी बहुत खोज की, पर पार न पड़ी । वह रात उसे गली-कूचों में ही रोते-रोते बितानी