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प्रकाशकीय
(द्वितीय संस्करण)
यह तो सर्व विदित है कि देश-विदेश में पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर के माध्यम से वीतरागी तत्त्वज्ञान का जो अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार हो रहा है; उसमें डॉ. भारिल्ल की सरल-सुबोध प्रवचन शैली एवं सशक्त लेखनी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। विगत १४ वर्षों से जून और जुलाई इन दो माह वे धर्मप्रचारार्थ विदेश में ही रहते हैं।
अमरीकन और यूरोपीय देशों में बसे भारतीय जैनों में आध्यात्मिक चेतना जाग्रत करने के उद्देश्य से डॉ. भारिल्ल ने जो भी व्याख्यान वहाँ दिए, प्रवचन किये; उन्हें वे वीतराग-विज्ञान के सम्पादकीयों में लिखते रहे हैं । संक्षिप्त यात्रा विवरण के साथ लिखे गये वे लेख स्थायी महत्त्व की विषयवस्तु को रोचक उदाहरणों के माध्यम से अत्यन्त सरल शैली में प्रस्तुत करते हैं । जिन लोगों ने उनके सार्वजनिक प्रवचन सुने हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि जब वे साधारण से उदाहरण के माध्यम से वस्तु की गहरी मीमांसा प्रस्तुत करते हैं, बड़े-बड़े सिद्धान्तों को समझाते हैं तो पाठक मंत्र-मुग्ध होकर सुनते रहते हैं और वे बातें भी उनके गले उतर जाती हैं, जिन्हें वह सहज भाव से स्वीकार नहीं कर पाता है । करोड़पति रिक्शेवाले के उदाहरण के माध्यम से आत्मा स्वभाव से तो भगवान है ही, पर्याय में भी भगवान बन सकता है - इस बात को वे बड़ी ही खूवी से जनसामान्य के गले उतार देते हैं।
नवीन अपरिचित प्रवुद्ध श्रांताओं के लक्ष्य से विदेशों में दिए गए प्रवचन अनेक उदाहरणों और विविध तर्कों से संयुक्त तो हैं ही, आध्यात्मिक विषय-वस्तु के अतिरिक्त भी अनेक विषयों पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। अत: वीतराग-विज्ञान में प्रकाशित हो जाने के बाद भी समाज की मांग पर हम उन्हें पुस्तकाकार प्रकाशित कर रहे हैं। सन् १९८४ से १९९१ तक के व्याख्यानों को हम यथासमय 'विदेशों में जैनधर्म : एक अध्ययन', 'विदेशों में जैनधर्म : प्रचार-प्रसार की संभावनाएँ', 'विदेशों में जैनधर्म : उभरते पदचिन्ह', विदेशों में जैनधर्म : बढ़ते कदम', 'विदेशों में जैनधर्म : अध्यात्म