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विदेशों में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार की सम्भावनाएं
नहीं हैं, पर कभी यह भी सोचा कि आपने उनमें धार्मिक संस्कार डाले ही कब हैं ? होंगे कहाँ से ? बालक स्वभाव से आस्तिक ही होते हैं । हमारी उदासीनता से ही वे नास्तिक बन जाते हैं । ___ अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम अपने बालकों में अपनी संस्कृति, सभ्यता, दर्शन, आचार, व्यवहार के संस्कार आरम्भ से ही डालें । उन्हें ऐसा वातावरण प्रदान करें कि जिसमें उनके आध्यात्मिक विकास में कोई कमी न रहे ।
८ जुलाई, १९८५ को हम न्यूयार्क से सीधे लासएजिल्स पहुँचे । वहाँ हम रमेशभाई दोशी के यहाँ ठहरे । एक व्याख्यान उनके घर एवं एक व्याख्यान डॉ. मणीभाई मेहता के घर पर हुआ ।
लासएंजिल्स से ११ जुलाई को सान्फ्रांसिस्को पहुँचे । वहाँ श्री हिम्मतभाई डगली के घर ठहरे । उन्होंने यह अनुभव किया कि कार्यक्रम लेट बनने से समुचित प्रचार नहीं हो पाता । यदि कार्यक्रम बहुत पहले निश्चित हो जाये तो इससे चौगुनी जनता लाभ ले सकती है । अतः उन्होंने रात के दो बजे तक आगामी वर्ष का एक अनुमानित कार्यक्रम तैयार किया ।
धार्मिक प्रचार-प्रसार की दृष्टि से अमेरिका प्रवास का कार्यक्रम बनाना अत्यन्त कठिन काम है, क्योंकि प्रत्येक नगर वाला यही चाहता है कि उसे शनिवार-रविवार मिले । अभी यह तो संभव नहीं है कि हम दो दिन प्रवचन करें और पाँच दिन आराम से बैठे रहें । ऐसी स्थिति में खींचतान बहुत होती है । अतः आगामी कार्यक्रम बनाते समय एक बात सिद्धान्त रूप से स्वीकार कर ली गई कि कार्यक्रम ऐसा बनाया जावे कि प्रत्येक नगर को एक शनिवार या रविवार मिल जावे । ___ इसप्रकार एक नगर में गुरु, शुक्र व शनि रखे गए और दूसरे नगर में रवि, सोम और मंगल । बुधवार का दिन और शनिवार की रात यात्रा के लिए रखी गई । इसे प्लेन के कार्यक्रमों से सेट करना बड़ी टेढ़ी खीर थी,