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आत्मा ही है शरण
प्रत्येक प्रवचन और चर्चा टेप तो किए ही जाते थे । जहाँ भी हम ठहरे, वहाँ गतवर्ष के टेप लोगों के घरों में थे और सुने जाते थे । वहाँ लोग काम पर जाते समय कार में टेप लगा लेते हैं और सुनते जाते हैं । सभी के ऑफिस का रास्ता लगभग एक घंटे का तो होता ही है । अतः उन्हें पढ़ने की अपेक्षा सुनने में अधिक सुविधा रहती है । डिट्रोयट में लक्ष्मीचन्दभाई ग्रोगरी ने तो हमें पुराना टेप सुनाकर मांग की कि हमें तो ऐसा गहरा व्याख्यान चाहिए । साथ में यह भी बताया कि हम आपके इस व्याख्यान को पन्द्रह बार सुन चुके हैं ।
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बारहभावना के १५ कैसेट हम भेंट देने के लिए ले गए थे । जहाँ-जहाँ ठहरे, लगभग सभी जगह वे भेंट किए । उनसे सैकड़ों टेप उतार लिए गए । इसप्रकार बारह भावना के कैसेट भी घर-घर पहुँच गए और दफ्तर जाते समय सिनेमा के गीतों के स्थान पर वे बजने लगे हैं ।
अमेरिका में ९० मिनट वाले कैसेट अधिक चलते हैं । अतः डॉ. मनोज धरमसी भाई ने वाशिंगटन के शिविर में कहा कि ४५ मिनट की बारह भावना है, ४५ मिनट का एक प्रवचन भी आप इन्हीं बारह भावनाओं पर कर दीजिए । इसप्रकार ९० मिनट की कैसेट तैयार की गई और उसकी प्रतिलिपियाँ भी खूब हुई ।
जैनमन्दिर की स्थापना का रहस्य बताते हुए न्यूजर्सी में एक भाई ने हमें बताया कि मेरा ७-८ वर्ष का बच्चा एक दिन बोला
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"क्यों पापा, क्या अपना कोई गॉड नहीं है, क्या अपना कोई चर्च नहीं है, क्या अपनी कोई प्रेयर नहीं है ? यदि नहीं है तो मैं अपने दोस्त के साथ उसके चर्च में ही चला जाऊँ ?"
बालक के इस अबोध उपदेश ने उन्हें मन्दिर बनाने के लिए प्रेरित किया
था ।
बालकों को घर, माँ-बाप भाई बहिन के समान मन्दिर, देवता और प्रार्थनाएं भी चाहिए । आज हम बालकों को दोष देते हैं कि उनमें धार्मिक संस्कार