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परिशिष्ट ३
जून-जुलाई १९९३ यह तो सर्वविदित ही है कि डॉ. भारिल्ल भोपाल शिविर के तत्काल बाद ३ जून, १९९३ को अमेरिका के लिए रवाना हो गये थे। नार्थ अमेरिका के विभिन्न नगरों एवं लन्दन (यूरोप) में धर्मप्रभावना कर जयपुर शिविर पूर्व ३ अगस्त, १९९३ को वे जयपुर आ गये हैं। उनके द्वारा वहाँ हुई धर्मप्रभावना के समाचार जो उनसे सुनने को मिले हैं; उनका संक्षिप्त सार इसप्रकार है :__ पिट्सवर्ग में सम्पन्न जैना का द्विवार्षिक सम्मेलन एवं शिकागो में जिनबिम्ब प्रतिष्ठा महोत्सव इस यात्रा के विशेष उल्लेखनीय प्रसंग हैं।
पिट्सवर्ग के इस सम्मेलन में सम्पूर्ण नार्थ अमेरिका, विभिन्न यूरोपीय एवं अनेक एशियन देशों से लगभग पाँच हजार लोग उपस्थित थे। एक छोटा-मोटा भारत ही उपस्थित था। एकदम भारतीय परिवेश था। मेला-सा लग रहा था। एक साथ ही अनेक सभागृहों में कार्यक्रम चलते थे। डॉ. भारिल्ल के प्रवचन प्रतिदिन ही भद्रवाहु हाल में होते थे। जिसमें लगभग पाँच सौ लोगों की उपस्थिति रहती थी। अनेकों श्रोता तो पुराने सुपरिचित थे, पर अनेक लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने उन्हें इस अवसर पर पहली बार ही सुना था। यहाँ डॉ. भारिल्ल ४ दिन रहे ।
इसीप्रकार शिकागो के पंचकल्याणक में भी सात हजार लोगों की उपस्थिति थी। यहाँ भी डॉ.भारिल्ल के प्रवचन लगभग प्रतिदिन ही हुए। कभी मुख्य पंडाल में कभी विशाल हॉल में। यहाँ तीन शिखरों से सुशोभित सुन्दरतम जिनमन्दिर का निर्माण हुआ है। तीनों शिखरों के नीचे तीन वेदियाँ हैं, जिसमें एक में तीन दिगम्बर मूर्तियाँ हैं। बीच में भगवान आदिनाथ की तीन फुट की एवं अगल-बगल में २.५-२.५ फुट की भगवान वासुपूज्य एवं नेमिनाथ के जिनबिम्ब हैं। शेष दो वेदियों में ७ श्वेताम्बर जिनविम्ब हैं। यहाँ डॉ. भारिल्ल १० दिन रहे। इन दस दिनों में उनके प्रवचनों द्वारा महती धर्मभावना हुई।
इनके अतिरिक्त मियामी, डलास, अटलान्टा, वाशिंगटन डी.सी., न्यूयार्क, न्यूजर्सी, एलनटाउन एवं सिद्धाचलम् में धर्मप्रभावना करते हुए ७ सप्ताह बाद एक सप्ताह के लिए आप लन्दन पहुँचे जहाँ नवनिर्मित दिगम्बर जैन सेन्टर में आपके प्रतिदिन दिन में तीन बार प्रवचन होते थे। प्रातः नयचक्र पर, दोपहर में निमित्त-उपादान पर एवं शाम को समयसार पर बहुत ही मार्मिक एवं गहरे प्रवचन हुए। यहाँ दिगम्बर जिनमन्दिर भी बन रहा है। इसी अवसर पर पण्डित विपिनकुमारजी शास्त्री, बम्बई भी पहुँच गये थे। उनके भी तीन प्रवचन हुए, जिनकी सभी ने बहुत सराहना की। - वीतराग-विज्ञान, सितम्बर १९९३, पृष्ठ-३२