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परिशिष्ट २
जून - जुलाई १९९२
यह तो सर्वविदित ही है कि डॉ. भारिल्ल विगत नौ वर्षों से प्रतिवर्ष धर्मप्रचारार्थ यूरोप और अमेरिका महाद्वीप की यात्रा करते रहे हैं। लगभग जून और जुलाई माह उनके वहीं बीतते हैं। प्रतिवर्ष अपनी यात्रा का विवरण और वहाँ प्रतिपादित विषयवस्तु के सम्बन्ध में वीतराग-विज्ञान के सम्पादकीयों के रूप में वे स्वयं लिखते थे ।
उनके वे सम्पादकीय विदेशों में जैनधर्म नाम से अनेक भागों में पुस्तकाकार भी प्रकाशित हैं । उन सभी भागों को पुनः सम्पादित करके एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की भी योजना है, क्योंकि उसमें प्रतिपादित विषय-वस्तु तात्त्विक और स्थाई महत्त्व की विषय-वस्तु है ।
अब वे समयसार के अनुशीलन करने में व्यस्त हैं और 'समयसार : एक अनुशीलन' नाम से लेखमाला भी आरम्भ हुई है, जो वीतराग-विज्ञान के सम्पादकीयों के रूप में लगातार आ रही है। अतः अब उनका इस वर्ष की गई नौवीं यात्रा का विवरण लिखने का विचार नहीं है ।
इस वर्ष लगभग सर्वत्र ही समयसार पर ही प्रवचन हुए हैं और समयसार अनुशीलन लिखा ही जा रहा है, अत: विशेष लिखने की आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती । विषय-वस्तु की मुख्यता से विवरण लिखा जाता था। अब जब विषय-वस्तु नहीं लिखी जा रही है तो विवरण भी नहीं लिखा जा रहा है ।
उनके माध्यम से जो सामान्य जानकारी प्राप्त हुई है, उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है :
भिण्डर (उदयपुर) राजस्थान में १७ मई से ३ जून, १९९२ तक सम्पन्न शिविर में आद्योपान्त रहकर वे ४ जून, १९९२ को अमेरिका के लिये रवाना हो गये ।
वहाँ क्रमशःडलास, डिट्रोयट, टोलिडो, लासएंजिल्स, सानडियागो, लघुनावीच, शिकागो, मियामी, टोरन्टो, वोस्टन, न्यूयार्क आदि अमेरिकी नगरों में होते हुए १५ जुलाई, १९९२ को लन्दन पहुँचे। वहाँ एक सप्ताह रुककर २३ जुलाई, १९९२ को जयपुर आ गये, क्योंकि यहाँ २६ जुलाई, १९९२ से शिविर आरम्भ था ।
सभी स्थानों पर अच्छी धर्मप्रभावना हुई। सर्वत्र ही मुख्य प्रवचन तो समयसार पर ही हुए, पर प्रसंगानुसार कहीं-कहीं, जैन- आहार विज्ञान, अहिंसा, शाकाहारश्रावकाचार, क्रमबद्धपर्याय, उत्तमक्षमा, मार्दव, निमित्त-उपादान आदि विषयों पर भी हुये । वीतराग-विज्ञान, अगस्त १९९२, पृष्ठ- २ से साभार
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