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आत्मा ही है शरण
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लाख बात की बात यहै निश्चय उर लाओ । तोरि सकल जग दन्द-फन्द निज आतम ध्याओ ॥' xxx कोटि ग्रंथ को सार यही है ये ही जिनवाणी उचरो है । दौल ध्याय अपने आतम को मुक्ति रमा तोय वैग वरै है ॥
उक्त पक्तियों में अत्यन्त स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि अधिक बात करने से क्या लाभ है, लाख बात की बात तो यह है कि जगत के दन्द-फन्द प्रपंचों को छोड़कर एक निज भगवान आत्मा का ही ध्यान धरो। उक्त पक्ति में प्रकारान्तर से यह भी कह दिया गया है कि एक आत्मा के ध्यान के अतिरिक्त जो भी है, वह सभी दन्द-फन्द ही हैं ।
करोड़ ग्रंथों का सार भी यही है और सम्पूर्ण जिनवाणी में भी यही आया है, सम्पूर्ण जिनागम में भी यही कहा गया है कि अपने आत्मा का ध्यान धरो । यदि तुम ऐसा कर सके तो मुक्तिरूपी कन्या अतिशीघ्र ही तुम्हारा वरण करेगी, तुम्हारे गले में वरमाला डाल देगी ।
मुक्तिरूपी कन्या प्राप्त करने के लिए तुम्हें मुक्तिरूपी कन्या का ध्यान धरने की आवश्यकता नहीं है, तुम तो स्वयं का ध्यान धरो । निज भगवान आत्मा को ही ज्ञान का ज्ञेय बनाओ, ध्यान का ध्येय बनाओ; मुक्तिरूपी कन्या स्वयं उपस्थित होकर तुम्हारा वरण करेगी, तुम्हारे गले में वरमाला डालेगी।
मुक्तिरूपी कन्या उनका वरण नहीं करती है, जो उसका ध्यान धरते हैं, किन्तु उनका ही वरण करती है, जो निज भगवान आत्मा का ध्यान धरते हैं । वह आत्मा पर रीझने वालों पर ही रीझती है । तात्पर्य यह है कि मुक्ति मुक्ति का ध्यान धरने वालों को प्राप्त नहीं होती, त्रिकालीध्रुव निज भगवान आत्मा का ध्यान धरने वालों को ही प्राप्त होती है । इसीलिए १. पडित दौलतराम : छहढाला, चौथी ढाल, छन्द ९ २. पडित दौलतराम : भजन की पक्ति