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आत्मा ही है शरण
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अपनी बात को स्पष्ट करते हुए मैंने एक उदाहरण दिया कि एक दम्पति (पति-पत्नी) में उग्र मतभेद चल रहे थे, तलाक की नौबत आ गई थी, दोनों अलग-अलग रह रहे थे । इसी बीच पत्नी के पिता का पत्र आया। उसमें उसने अपनी इकलौती बेटी को लिखा था कि अब मैं पूर्णतः अकेला रह गया हूँ । अतः जीवन के अन्तिम वर्ष अध्यात्म-नगरी काशी में गुजारना चाहता हूँ । उसके पहले सात दिन तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ । तुम्हारे पास रहकर यह देखना चाहता हूँ कि तुम सुखी तो हो, पति-पत्नी प्रेम से तो रहते हो; तुम्हारी सुखी गृहस्थी देखकर मैं निश्चिंत होकर काशी वास कर सकूँगा, अन्यथा मेरे चित्त में तुम्हारी सुख-सुविधा का विकल्प खड़ा रहेगा
और मेरा मरण शान्ति से नहीं हो सकेगा ।। ___ मैं सर्वप्रकार निश्चित होकर जीवन के अन्तिम दिन गुजारना चाहता हूँ, मेरा मरण शान्ति से समाधिमरण हो – इसके लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि मैं तुम्हारी ओर से निश्चित हो जाऊँ; क्योंकि अब इस दुनिया में तुम्हारे अतिरिक्त मेरा है ही कौन ?
पिता का इसप्रकार का पत्र पाकर वह चिन्तामग्न हो गई, साहस बटोर कर पति के पास पहुँची । देखते ही पति व्यंगवाण छोड़ता हुआ बोला -
"अच्छा अब आ गई महारानीजी, आ गई अकल ठिकाने" मर्माहत वह बोली – "चिन्ता न करें, मैं रहने नहीं आई हूँ; यह पत्र आया है, यही दिखाने आई हूँ ।" ।
पत्र लेते हुए पति बोला - "किसका है? क्या लिखा है ?" पत्र देते हुए पत्नी बोली – "पिताजी का ।"
पत्र पढ़कर पति बोला – “इस पत्र के सन्दर्भ में मुझसे क्या चाहती हो ? मैं क्या कर सकता हूँ तुम्हारे पिताजी के लिए?
पत्नी बोली - "यदि हम चाहें तो पिताजी का मरण तो सुधर ही सकता है"