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जीवन-मरण और सुख-दुख
आचार्यदेव कहते हैं कि जनसामान्य के सामने इस परमसत्य के उद्घाटन से तो प्रत्येक प्राणी को लाभ ही लाभ है । तनाव की कमी होना भी अपने आप में एक उपलब्धि है, जो इस परमसत्य के समझने से निश्चित रूप से कम होता है । दूसरी बात यह है कि इस जगत के भोले प्राणी अपने भले-बुरे की जिम्मेदारी पड़ोसियों पर डालकर व्यर्थ ही उनसे राग-द्वेष किया करते हैं, यदि वे इस सत्य को हृदयंगम करलें तो उनका पड़ोसियों से वैरभाव निश्चितरूप से कम होगा ।
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आज जव कोई युवक अपनी जीवनसंगिनी चुनने के उद्देश्य से किसी युवती तो देखने जाता है तो पहली ही झलक में इस निर्णय पर पहुँच जाता है कि संबंध करने योग्य है या नहीं । यद्यपि निर्णय पर पहुँचने में घंटों नहीं लगते, महीनों तो लगते ही नहीं; तथापि वह अपनी भावना को व्यक्त नहीं करता, यही कहता है कि हाँ-हाँ, सब ठीक है, पर उत्तर घर पहुँच कर वहाँ से देंगे ।
क्यों ?
क्योंकि वह अच्छी तरह से जानता है कि यदि वह अभी ही अपनी नापसंदगी व्यक्त कर देगा तो वातावरण बोझिल हो जायेगा, चायपानी भी संकट में पड़ जायेगा और पसंदगी व्यक्त कर देने पर पिता को सौदा करने का अवसर नहीं रहेगा; अतः वह चतुराई से काम लेता है ।
मान लीजिए कि वह आपके यहाँ लड़की देखकर आपके पड़ोसी के घर भी गया; क्योंकि उसकी उनसे पुरानी जान-पहचान थी, जैसा कि अक्सर होता ही है ।
जब उसके घर पहुँचने के महीनों बाद उसके पिता का उत्तर आया कि हमारे लड़के का अभी तीन वर्ष शादी करने का विचार नहीं है तो आप उद्वेलित हो जाते हैं ।