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आत्मा ही परमात्मा है
आया है; इसलिए मैं आपकी ऋणी हूँ; शिष्या हूँ; मेरा नमस्कार स्वीकार कीजिए ।
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"धर्म के दशलक्षण में आया उत्तम क्षमा का लेख मेरे हृदय को छू गया । उसी की प्रेरणा से आपको पत्र लिखने बैठ गई । भगवान की कृपा से हमारे पास सबकुछ है, फिर भी यह बेचैनी, यह तड़फ यह अशान्ति क्यों ? आपकी कृपा से आत्मा की अनुभूति के परिचय की शुरूआत हुई है और इसमें हमें आपका आशीष चाहिए ।
आपकी नई पुस्तकें पढ़ने की तीव्र इच्छा है ।
लिखा जयश्री शाह का सादर प्रणाम ।"
हमारे इन कार्यक्रमों के आयोजक श्री रमणीकभाई वदर एवं उनकी धर्मपत्नी जयश्री बेन इनकी सफलता से इतने उत्साहित हैं कि हमारे वापस आते ही अगले वर्ष जाने की बात करने लगते हैं । उनका वश चले तो वे हमें देश में रहने ही न दें ।
यद्यपि यह बात सत्य है कि दो माह विदेश - प्रवास चले जाने से मेरे साहित्यिक कार्य की हानि होती है, कार्य का बोझ भी बढ़ जाता है; तथापि जब लोगों की श्रद्धा एवं भावनाओं का ख्याल आता है तो जाये बिना भी नहीं रहा जाता ।
वीतरागी तत्त्वज्ञान सम्पूर्ण जगतीतल पर जयवंत वर्ते के साथ विराम लेता हूँ ।
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इस मंगल कामना