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[ आप कुछ भी कहो
(११) पण्डितराज जब अपने काफिले में पहुँचे तो उनके साथी पूछने लगे - "क्या मिला महाराज ?"
उन्होंने बहुत संक्षिप्त-सा उत्तर दिया - "बहुत-कुछ; बहुत-कुछ नहीं, सब-कुछ।"
धर्म परिभाषा नहीं, प्रयोग है। अतः सुखाभिलाषी को, आत्मार्थी को, मुमुक्षु को अपने को पहिचानना चाहिए, अपने में जम जाना चाहिए, रम जाना चाहिए। सुख पाने के लिए अन्यत्र भटकना आवश्यक नहीं। अपना सुख अपने में है, पर में नहीं, परमेश्वर में भी नहीं; अतः सुखार्थी का परमेश्वर की ओर भी किसी आशा-आकांक्षा से झाँकना निरर्थक है। ___ तेरा प्रभु तू स्वयं है। तू स्वयं ही अनन्त सुख का भण्डार है, सुखस्वरूप है, सुख ही है। सुख को क्या चाहना? चाह ही दुःख है। पंचेन्द्रिय के विषयों में सुख है ही नहीं। चक्रवर्ती की संपदा पाकर भी यह जीव सुखी नहीं हो पाया। ज्ञानी जीवों की दृष्टि में चक्रवर्ती की सम्पत्ति कोई कीमत नहीं हैं, वे उसे जीर्ण तृण के समान त्याग देते हैं और अन्तर में समा जाते हैं। ___अन्तर में जो अनन्त आनन्दमय महिमावन्त पदार्थ विद्यमान है, उसके सामने बाह्य विभूति की कोई महिमा नहीं।
धर्म परिभाषा नहीं, प्रयोग है। अत: आत्मार्थी को धर्म के शब्दों में रटने के बजाय जीवन में उतारना चाहिए, धर्ममय हो जाना चाहिए।
- तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ५२