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जरा-सा अविवेक ]
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तुनककर चौथा कहता - "पिताजी ने तो उन्हें माथे पर चढ़ा रखा था। भगवान मानते थे भगवान! कुछ कहो तो उन्हीं के सामने हमें ऐसे झिड़क देते थे, जैसे हम कुछ समझते ही नहीं हैं । हम तो चुप रह जाते थे, नहीं तो."
उसकी बात पूरी न हो पाती और दूसरा बोल पड़ता -
"उन्होंने इन पर कोई जादू कर रखा था जादू, अन्यथा उनके पीछे पागल से क्यों डोलते रहते? अब चुप्पी साध ली है।"
(९) ये बातें धीरे-धीरे सारे गाँव में फैल गईं थीं; अत: जहाँ देखो, वहीं इसप्रकार की कानाफूसी चल निकली थी। इसकारण सेठजी और पण्डितजी का जीना और भी दूभर हो गया था। __ ये सारी बातें सुन-सुनकर सेठजी का खून खौलता था; पर उन्हें कोई रास्ता दिखाई नहीं देता। यदि उन्हें भी पण्डितजी पर क्रोध आ जाता तो इस मंडली के साथ उनकी भी पटरी बैठ जाती; पर क्या करें, उनका दिल मानता ही न था। उन्होंने पक्का दिल करके एक बार पण्डितजी से एकान्त में मिलने का निश्चय किया। ___ पण्डितजी की हालत तो सेठजी से भी बदतर थी; क्योंकि चोरी तो उनकी ही पकड़ी गई थी; पर उनके पास जिन्दा रहने के लिए पाण्डित्य का सहारा था; अत: उन्होंने अपना संसार साहित्य को बना लिया, शास्त्रों को बना लिया। यद्यपि उन्हें बहुत बड़ी ठेस लगी थी, तथापि इस घटना से उन्हें एक लाभ भी हो गया था। अब उनका समय बाहरी कामों में, व्यर्थ के व्यवहारों के निभाने में बरबाद नहीं होता था; अध्ययन-मनन के लिए मानों उन्हें यह शुभ अवसर प्राप्त हो गया था, अन्यथा उनके स्वभाव के अनुसार उन्हें जीवन भर फुरसत न मिलती।
उनके घरवाले उनसे इस सम्बन्ध में पूछ-पूछकर थक चुके थे; पर वे एक ही बात कहते, जो उन्होंने सेठजी से कही थी। इस बात पर लोगों को विश्वास