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[ आप कुछ भी कहो
होना होगा, होता रहेगा। हम तो इससे भिन्न ज्ञान के घनपिण्ड आनन्द के कन्द चेतनतत्त्व हैं, सो उसमें ही मग्न हैं । "
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"यह सब तो ठीक है, अध्यात्म की बातें हैं; पर आपको इसके लिए भी कुछ करना चाहिए - यही हमारा नम्र निवेदन है ।"
"हम इसका क्या कर सकते हैं ?"
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'आप क्या नहीं कर सकते हैं? आप कुवादियों का मद मर्दन करने वाले वादिराज हैं । आपकी वाणी में वह शक्ति है कि जो उसमें प्रस्फुटित हो जावे, वह होकर ही रहता है। इसका परिचय इस जगत को कई बार प्राप्त हो चुका है । आपके शब्द ही मंत्र हैं, उनका जादू जैसा प्रभाव हम कई बार देख चुके हैं। यदि आप चाहे तो यह कुष्ठ एक समय भी नहीं रह सकता । "
" बहुत भ्रम में हो श्रेष्ठीराज ! ऐसा कुछ भी नहीं है। किसी का चाहा कुछ भी नहीं होता । उसी भव में मोक्ष जाने वाले सनतकुमार चक्रवर्ती को भी मुनि अवस्था में सात सौ वर्ष तक यह कुष्ठ व्याधि रही थी, तो हमारी क्या बात है ?
दूसरे, इसने क्या बिगाड़ा है हमारा, जो हम इसका अभाव चाहने लगें । हमने कुछ चाहने के लिए घर नहीं छोड़ा है, चाहना छोड़ने के लिये ही हम दिगम्बर हुए हैं। हमें इन विकल्पों में न उलझाओ ।
शास्त्रों में ठीक ही कहा है कि गृहस्थों की अधिक संगति ठीक नहीं। वे व्यर्थ की बातों में ही उलझाते हैं, उनसे अन्तर की प्रेरणा मिलना तो सम्भव है नहीं । "
"
'आप अपने लिए न सही, पर हमारे लिए तो दुःख देखा नहीं जाता, दिगम्बरत्व का यह अपमान
कुछ
"
...
करो । हमसे यह
वे अपनी बात पूरी ही न कर पाये थे कि वादिराज बोले "कोई किसी के लिए कुछ नहीं कर सकता । पर इसमें दिगम्बरत्व के अपमान की बात कहाँ से आ गई? दिगम्बर धर्म आत्मा का धर्म है, शरीर
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