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सुनकर मन में खेद लावे, वह मन की विकृति वाला है । परन्तु गाली सुन कर मन में खेद भी न आवे, वह क्षमाधारी है ।
इसके भी आगे कहा है, गुन को औगुन कहै अयानो । हों हममे गुण, और सामने वाला औगुण रूप से वर्णन करे, और वह भी अकेले में नहीं भरी सभा में, फिर भी हम उत्तेजित न हों तो क्षमाधारी हैं ।
कुछ लोग कहते हैं भाई । हम गालियाँ बर्दाश्त कर सकते हैं, पर यह कैसे संभव है कि जो दुर्गुण हममें नहीं हैं, उन्हें कहता फिरे । उन्हें भी अकेले में कहे तो किसी तरह सह भी लें, पर भरी सभा में कहे तो फिर तो गुस्सा आ ही जाता है।
द्यानतरायजी इसी बात को स्पष्ट कर रहे हैं कि यदि गुस्सा आ जाता है, तो वह क्षमा नहीं है, क्रोध ही है। मान लो तब भी क्रोध न आवे, हम सोच लें, बकने वाले बकते हैं, बकने दो, हमें क्या है? पर जब वह हमारी वस्तु छीनने लगे, हमें बाँध दे, मारे और भी अनेक प्रकार से पीड़ा दे तब भी हम क्रोध न करें, तब उत्तम क्षमा के धारी कहलायेंगे |
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क्षमा एक तप है। अगर कोई गाली देता है या खोटे वचन कहता है तो फिर उसे सहन कर जायें, यह बहुत बड़ा तप है । जो सभी पर क्षमा भाव रखता है, वह सदा सुखी रहता है। यदि सामनेवाला असमर्थ हो तो भी हमें उसे क्षमा ही करना चाहिये । वास्तव में वे ही क्षमाशील हैं जो असमर्थों को भी क्षमा कर देते हैं । जिसने क्रोध शत्रु को जीत लिया है, वही वीर पुरुष क्षमा को धारण कर सकता है। कायर मनुष्य इसे धारण नहीं कर सकता। जिसकी आत्मा बाह्य तुच्छ निमित्तों के संयोग से विकारवान् हो जाती है, वह क्रोध - शत्रु से लोहा नहीं ले सकता । क्रोध को परास्त करना साधारण व्यक्ति का काम नहीं है ।
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