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के बिना, सन्देह रहित, जैसा-का-तैसा जाने, वह सम्यग्ज्ञान है। जैसे हमारे पास एक तोले की असली साने की डली है | उसका यदि एक तोले से कम की जाने ता ज्ञान मिथ्या है। एक तोले से ज्यादा की जाने तो भी मिथ्या है। जो सोने की बजाय उस पीतल की जान ले, अर्थात् विपरीत जान ले तो भी मिथ्या है। अथवा यह साने की डली है या पीतल की, एसा संदेह बना रहे तो भी मिथ्या है | वस्तु जैसी है वैसी जाने, इस प्रकार ठीक-ठीक जानने वाले ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
सम्यग्ज्ञानी का ज्ञान संशय, विमाह और विभ्रम रहित हाता है | जैसे चार पुरुषों ने सीप के खंड का अवलोकन किया। उनमें से एक पुरुष तो ऐसा कहने लगा-न जाने सीप है कि चांदी है? उसे संशय कहते हैं। एक पुरुष इस प्रकार कहने लगा यह तो चाँदी है, उसे विमोह कहते हैं। एक पुरुष इस प्रकार कहने लगा-यह कुछ है, उसे विभ्रम कहत हैं। एक पुरुष इस भाँति कहने लगा-यह तो सीप का खंड है, उस शुद्ध वस्तु का स्वरूप जैसा था, वैसा ही जानने का धारी कहा जाता है। उसी भाँति सात तत्त्वों के जानने में अथवा आपा-पर के जानने में लगा लेना चाहिये | आत्मा कौन है व पुदगल कौन है? उसे संशय कहत हैं। मैं तो शरीर हूँ, उसे विमोह कहते हैं | मैं कुछ हूँ, उसे विभ्रम कहते हैं। मैं चिद्रूप आत्मा हूँ, उस सम्यग्ज्ञान कहते है। सम्यग्ज्ञान चारों अनुयोगों को ठीक-ठीक जान लेता है |
प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् ।
बोधि समाधि निधानं बाधित बाधः समीचीनः ।। जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का व्याख्यान करने वाला है, जो एक पुरुष के चरित्र को कहने वाला है, जैसे श्रेणिक चरित्र, जो सठशलाका पुरुषों के चरित्र को बताने वाला है, जैसे
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