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उसका दुःख मिटे, अन्य किसी दूसरे उपाय से दुःख मिट नहीं सकता | इस जीव ने धन सम्पत्ति तो अनेक बार पाई किन्तु सम्यग्ज्ञान आज तक प्राप्त नहीं किया। पर-पदार्थों को अपना मानना और उनकी सवा में जुटे रहना ही सबसे बड़ी भूल है और यही दुःख का कारण है।
मोह के कारण यह जीव अनादिकाल से अपने शुद्ध स्वरूप को भूल रहा है। जिस ज्ञानी के अनंत पदार्थों में यह भाव आ गया कि जगत में मेरा कोई नहीं है, उसका बड़ा भारी दुःख मिट गया। ऐसे ज्ञानी को पं. बनारसी दास जी ने नमस्कार किया हैभद विज्ञान जग्यौ जिनके घट,सीतल चित्त भयो जिमिचंदन | केलि करें शिवमारग में,जग माहिं जिनेश्वर के लघुनंदन ।। सत्यस्वरूप सदा जिन्हक,प्रकट्यो अवदात मिथ्यात्व निकंदन। शान्त दसा तिन्ह की पहिचान,करें कर जोरि बनारसि वंदन ।।
जिनके हृदय में निज-पर विवेक प्रकट हुआ है, जिनका चित्त चंदन के समान शीतल है अर्थात् कषायों का आताप नहीं है, जो निज-पर विवेक होने से मोक्ष मार्ग में मौज करत हैं, जो संसार में अरंहत देव के लघुपुत्र हैं, अर्थात् थोड़े ही काल में अरहन्त पद प्राप्त करने वाले हैं, जिन्हें मिथ्यादर्शन को नष्ट करने वाला निर्मल सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है, उन सम्यग्दृष्टि जीवों की आनन्दमय अवस्था का निश्चय करके पं. बनारसी दास हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं।
सम्यग्ज्ञान के स्वरूप का वर्णन करते हुये रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रंथ में आचार्य समन्तभद्र महाराज ने लिखा है -
अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं बिना च विपरीतात् । निस्सन्देह वे द यदाहु स्तज्ज्ञान माग मिनः ।। जो वस्तु के स्वरूप को न्यूनतारहित, अधिकता रहित, विपरीतता
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