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शास्त्र स्वाध्याय करने वाले के स्वाध्याय करते हुए पाँचों इन्द्रियाँ वश मं होती हैं, मन, वचन, काय स्वाध्याय में रत हो जाते हैं, ध्यान में एकाग्रता होती है, विनय गुण से युक्त होता है। स्वाध्याय परमोपकारी है । (श्री वट्टकेरस्वामी, मूलाचार समयसार अधिकार) तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित बाहरी, भीतरी बारह प्रकार तप में स्वाध्याय तप के समान कोई तप नहीं है, न होवेगा, इसलिये स्वाध्याय सदा करना योग्य है ।
( श्री वट्टकेरस्वामी, मूलाचार समयसार अधिकार ) जैसे सूत के साथ सुई हो तो कभी प्रमाद से भी खोई नहीं जा सकती है, वैसे ही शास्त्र - अभ्यासी पुरुष प्रमाद के दोष होते हुए भी कभी संसार में पतित नहीं होता है अपनी रक्षा करता रहता है। ज्ञान बड़ी अपूर्व वस्तु है ।
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(श्री वट्टकेरस्वामी, मूलाचार, समयसार अधिकार) हे आत्मन्! इस जिनवाणी को रात-दिन पढ़ना चाहिये । यह जिनेन्द्र का वचन प्रमाण के अनुकूल पदार्थों को कहने वाला है, इससे निपुण है तथा बहुत विस्तारवाला है, पूर्वापर विरोध से रहित, दोषरहित शुद्ध है, अत्यन्त दृढ़ है अनुपम है तथा सर्वप्राणी मात्र का हितकारी है और रागादि मैल को हरने वाला है ।
(श्री शिवकाटि आचार्य, भगवती आराधना )
जिनवाणी के पढ़ने से आत्महित का ज्ञान होता है, सम्यक्त्व आदि भावसंवर की दृढ़ता होती है नवीन-नवीन धर्मानुराग बढ़ता है, धर्म में निश्चलता होती है, तप करने की भावना होती है और पर को उपदेश देने की योग्यता आती है ।
(श्री शिवकोटि आचार्य, भगवती आराधना )
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