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इस संसार रूपी उग्रमरुस्थल में, दुःखरूप अग्नि से तप्तायमान जीवां को, सत्यार्थ ज्ञान ही अमृतरूप जल से तृप्त करने को समर्थ है।
जब तक ज्ञानरूपी सूर्य का उदय नहीं होता, तभी तक यह समस्त जगत् अज्ञान रूपी अन्धकार से आच्छादित है । अर्थात् ज्ञानरूपी सूर्य का उदय होते ही अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है ।
इन्द्रिय रूपी मृगों को बांधने के लिये ज्ञान ही एक दृढ़ फाँसी है, अर्थात् ज्ञान के बिना इन्द्रियाँ वश नही होतीं तथा चित्तरूपी सर्प का निग्रह करने के लिए ज्ञान ही एक गारूड़ी महामन्त्र है । अर्थात् मन भी ज्ञान से ही वशीभूत होता है ।
ज्ञान ही तो संसार रूप शत्रु को नष्ट करने के लिए तीक्ष्ण खड्ग है और ज्ञान ही समस्त तत्त्वों को प्रकाशित करने के लिए तीसरा नेत्र है ।
जो अज्ञानी है वह तो करोड़ों जन्म लेकर तप के प्रभाव से पाप को जीतता है । और उसी पाप को अतुल्य पराक्रम वाला भेद विज्ञानी आधे क्षण में ही भस्म कर देता है ।
जिस मार्ग में अज्ञानी चलते हैं, उसी मार्ग में विद्वज्जन चलते हैं, परन्तु अज्ञानी तो अपनी आत्मा को बांध लेता है और तत्त्वज्ञानी बन्ध रहित हो जाता है । यह ज्ञानका माहात्म्य है ।
हे भव्य जीव ! तू ज्ञान का आराधन कर। क्योंकि ज्ञान पापरूपी तिमिर (अंधकार) को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान और मोक्षरूपी लक्ष्मी के निवास करने के लिए कमल के समान है, तथा कामरूपी सर्प के कीलने को मन्त्र के समान और मन रूपी हस्ती को सिंह के समान है, तथा व्यसन- आपदा कष्टरूपी मेघों को उड़ाने के लिये पवन के समान, और समस्त तत्त्वों को प्रकाश करने के लिये दीपक के समान है, तथा विषयरूपी मत्स्यों को पकड़ने के लिये जाल के
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