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व्यतीत हो चुका है। जब इस जीव को अपने स्वभाव का बोध होगा तब वह बहिर्मुखी न होकर, अन्तर्मुखी होना प्रारम्भ कर देगा ।
जो शास्त्र में लिखा है, वह जीवन में प्रकट हो जावे तो ही शास्त्र पढ़ना सार्थक है । सच्चा ज्ञानी वही है । 'स्वात्मानं पश्यति' जो स्वरूप को जानता या अनुभव करता है, वही पण्डित है, वही ज्ञानी है । उसी का ज्ञान कल्याणकारी है। जिसके भीतर यह विचार या विवेक सदा बना रहता है कि अपने भीतर उठने वाले राग-द्वेष रूपी विकारी भावों को हटाना है और अपने वीतराग स्वभाव का अनुभव करना है ।
आचार्य भगवन्तां ने लिखा है -
जेण रागा विरज्जेज्जं, जेण मित्ती पवासेज्ज ।
जेण तत्त्वं विज्जेज्जं तं गाणं जिण - सासणे ||
जिनेन्द्र भगवान ने उसे ही सच्चा ज्ञान कहा है, जिसके अभ्यास से अन्तरंग में निर्मलता आए और राग-द्वेषरूपी विकारी भावों से विरक्ति हो जाए । जिस ज्ञान के अभ्यास से प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव जागृत हो, जिस ज्ञान के फलस्वरूप हमें अपने आत्मतत्त्व का बोध हो । जैसे-जैसे आत्मज्ञान बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे ही अंतरंग में रागादि विकारी भाव घटते जाएँगे। दोनों बातें एक साथ होंगीं । आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है
यथा-यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्, तथा-तथा न रोचंते विषया सुलभाऽपि । यथा-यथा न रोचंते विषया सुलभाऽपि, तथा - तथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । ।” विषय-भोग की सामग्री, भौतिक सुख-सुविधा की सामग्री सुलभता से प्राप्त होने पर भी रुचिकर नहीं लगेगी यह निरन्तर बढ़ते हुए
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