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मेंढक एंव सर्प के निमित्त से होने वाली घटनाओं से प्रेरित हाकर तीन खण्ड श्लोकां की रचना की, जिनका भाव था - 1. रे मन रूपी गर्दभ! यदि तू इन विषय-भागों रूपी जौ को
खायेगा तो तुझे पछताना पड़ेगा अर्थात् तेरा संसार-परिभ्रमण
होगा। 2. रे मन रूपी बालक | तुम्हारा सुख तुम्हारे भीतर है। तुम उसे
इधर-उधर बाह्य पदार्थों में खोजते हुये क्यों व्यर्थ दुःखी हो
रहे हो? 3. हे आत्मन! तू अपने स्वभाव से भय मत कर, अपने पीछे लगे
हुए राग-द्वेष आदि से भय कर। यम मुनिराज साधु-सम्बन्धी प्रतिक्रमण, स्वाध्याय एवं कृति कर्म आदि सभी क्रियायें इन तीन खण्ड-श्लोकों द्वारा ही किया करते थे। उनके अन्दर श्रद्धा और विनय इतनी अधिक थी कि इन तीन खण्ड-श्लोकों के स्वाध्याय के बल पर ही उन्हें सात ऋद्धियों की प्राप्ति हो गई थी।
श्री क्षमासागर जी महाराज ने लिखा है-जिससे स्व-पर प्रकाशक ज्ञान की प्राप्ति हो, वही वास्तव में स्वाध्याय है।
जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भ दिया। वरणादि अरु रागादि तें, निज-भाव को न्यारा किया।। एसी पैनी दृष्टि हमारे भीतर आ जए, ऐसा ज्ञान, ऐसा विवेक हमारे भीतर उत्पन्न हो जाए, जिसके द्वारा हम स्व और पर का अन्तर पहचान सकें | जिसके द्वारा हम रागादि विकारी भावां से और रूप, रस, गंध व स्पर्श से युक्त पौद्गलिक शरीर स, अपने निज स्वभाव को पृथक अनुभव कर सकें। वास्तव में एसा भेदविज्ञान ही हमार जीवन को ऊँचा उठाने में सक्षम है, वरना ज्ञान तो सभी जीवों
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