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ग्रहण होता है, उसे अवग्रह मतिज्ञान कहते हैं ।
(II) ईहा - अवग्रह से जाने हुये पदार्थ को विशेष जानने की इच्छा के होने को ईहा ज्ञान कहते हैं ।
(III) अवाय विशेष चिन्ह देखने से जिसका निश्चय हो जाय, उसे अवाय ज्ञान कहते हैं ।
(IV) धारणा अवाय से निर्णीत पदार्थ को कालान्तर में न भूलना धारणा ज्ञान है ।
(2) श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते
हैं । मतिज्ञान के अनन्तर जो मन के द्वारा अन्य-अन्य विषयों की विचारधारा चल पड़ती है वह श्रुतज्ञान है ।
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(3) अवधिज्ञान • द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा पूर्वक जो रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं । यह दो प्रकार का होता है ( 1 ) गुणप्रत्यय ( क्षयोपशमनिमित्तक) (II)
भवप्रत्यय |
(I) गुणप्रत्यय
किसी विशेष पर्याय की अपेक्षा न करके जीव के पुरुषार्थ द्वारा जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, वह गुणप्रत्यय कहलाता है ।
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(II) भवप्रत्यय यह अवधिज्ञान देव नारकी तथा तीर्थंकरों को (गृहस्थ अवस्था में ) होता है । यह नियम से देशावधि होता है । ( 4 ) मनः पर्यय ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की मर्यादा पूर्वक जो दूसरे मे मन में स्थित बातों को जानता है, उसे मनः पर्यय ज्ञान कहते हैं। यह भी दो प्रकार का होता है । (1) ऋजुमति (II) विपुलमति ।
(I) मनः पर्यय ज्ञान जो पर के मन में स्थित सरल सीधी बात को जानता है, वह ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान है ।
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