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आप्तोपज्ञमनु कलडध्य, मदृष्टेष्टविरोधकम् |
तत्त्वो पदशकृत्सार्व, शास्त्रं कापथघट्टनम् ।। जो सच्चे देव का कहा हुआ हो, इन्द्रादिक से भी खण्डन रहित हो, प्रत्यक्ष व परोक्ष आदि प्रमाणों से निर्बाध, तत्त्वों का यथार्थ उपदेशक हो, सब का हितकारी और मिथ्यात्व आदि कुमार्ग का नाशक हो, उसे सच्चा शास्त्र कहते हैं।
ऐसे शास्त्र चार अनुपयोगों में विभाजित किये गये हैं -
(1) प्रथमानुयोग (2) करणानुयोग (3) चरणानुयोग और (4)द्रव्यानुयोग | जो भी इन ग्रन्थों का स्वाध्याय, मनन, चिंतन करता है, उसका कल्याण होता है। अपना ज्ञान बढ़ाने के लिये चारों अनुयोगों के शास्त्रों को पढ़ना, दूसरों को पढ़ाना, शंका निवारण के लिये विद्वानों से किसी विषय का पूछना, पाठ करना, शास्त्रों में जो कुछ पढ़ा है, उसका विचार करना, यह सब स्वाध्याय है।
स्वाध्याय करने से ही हमें धर्म का स्वरूप व उसकी महिमा समझ में आती है। __ श्री गणेश प्रसाद वर्णी जी ने लिखा है कि मेरे एक विद्यागुरु श्रीमान् पण्डित मूलचन्दजी ब्राह्मण थे। उनके साथ मैं गाँव के बाहर श्री रामचन्द्र जी के मन्दिर में जाया करता था। वहाँ रामायण का पाठ होता था। मेरे घर के सामन जिनालय था। वहाँ भी जाया करता था।
जब मैं 10 वर्ष का था तब की बात है। सामने मन्दिर जी के चबूतरे पर प्रतिदिन पद्मपुराण (जैन रामायण) का प्रवचन होता था। एक दिन त्याग का प्रकरण आया। उसमें रावण के पर स्त्री त्याग करने का उल्लेख किया गया था। बहुत से भाइयों ने प्रतिज्ञा ली, मैंने भी उस दिन आजीवन रात्रि-भोजन त्याग करने का नियम ले
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