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मात्र निर्लेप भावमात्र है । यह अपने जिस स्वरूप में है, उस ही मे ठहरे, तो इसे किसी तरह का दुःख नहीं है, किन्तु स्वरूप की तो सुध भी नहीं रखता, बाहरी पदार्थों में ही निरन्तर मग्न रहा करता है । यह संसारी जीव विवेकरहित होकर आशारूपी अग्नि से जलता हुआ, इस जलन को मिटाने के लिये चेतन अचेतन परिग्रहां से सुख चाहता है, किन्तु ये सब साधन तो भव-भवों में दुःख ही उत्पन्न करते हैं । इस असार संसार सुख काहे का है । बाँस देखने में बड़े लम्बे होते हैं किन्तु उनके नीचे छाया नहीं होती और छुटपुट थोड़ी छाया भी मिले तो नीचे का वह स्थान कंटीला होता है और बाँस ही आपस में रगड़कर अग्नि उत्पन्न करते हैं और भस्म कर देते हैं । यह संसार की माया कहने मात्र को है। इसमें सार कुछ भी नहीं है, बाँस की छाया की तरह असार है । यह ग्रहण करने योग्य नहीं है, किन्तु छोड़ने योग्य है ।
जो मोही है, शरीर को ही मैं समझता है, वह चाहता है मरा दुनिया में यश फैले, मेरा नाम चले, मेरी परम्परा रहे, मैं कुछ यहाँ अपना खम्भा गाड़ जाऊँ आदि । अरे मरकर न जाने कहाँ -से-कहाँ जन्में, उसके लिये फिर यहाँ का क्या? यहाँ बड़ा परिश्रम करके बहुत-बहुत धन संचय कर लिया, बड़ा मकान बनवा दिया, सब कुछ बढ़वारी कर दी, पर मरने के बाद उसका यहाँ है क्या कुछ? उसका यहाँ कुछ भी नहीं है । फिर भी शरीर में आत्मबुद्धि होने से मनुष्य इन दो बातों पर ही तुला है- एक धन बढ़ जाये और एक विषय - भोगों के साधन बने रहें । परंतु इस जोड़े हुये समस्त समागम का फल तो अन्त में विघटन ही है । व्यक्ति सुख तो चाहता है परंतु पाप छोड़कर धर्म नहीं करना चाहता । यह तो "पुण्य की चाह, पाप की राह वाली" बात है ।
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