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आस्रव तत्काल रुक जायेगा। शास्त्रों का स्वाध्याय करना बड़ा पवित्र एवं श्रेयस्कर कार्य है। ज्ञानाभ्यास क समय मन न तो किसी भोग में फँसता है, ने किसी द्वेष, क्षोभ, लोभ में अटकता है, 2-3 घंटे कब निकल गये | पता ही नहीं चलता।
सम्यग्ज्ञान ही शरण है | मैं, मैं हूँ, मैं, दह रूप नहीं, मैं, मेरा हूँ, मेरे बाहर में अन्यत्र मरा कहीं कुछ नहीं। एसा भेदज्ञान ही हम आपका शरण है। जिस समय यह जीव शरीरादि से भिन्न अपनी शुद्ध चैतन्यमय आत्मा को जान लेगा, उसी समय में उसका जीवन परिवर्तित होना शुरू हो जायेगा। सभी को पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न एक अनादि-अनिधन जीव आत्मा को जानने का प्रयास अवश्य करना चाहिये | आचार्यों का कहना है-पर का साथ खोजने के व्यर्थ विकल्पों का छोड़कर, निज परमात्मतत्त्व का पहिचानकर उसी में लीन रहो, संतुष्ट रहो, तृप्त रहो | सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। ‘समयसार' ग्रंथ में आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने लिखा है
एदम्हि रदो णिच्चं संतुष्ट्ठो होहि णिच्चमे दम्हि |
एदेण होदि तित्ता होहदि तुह उत्तम सो क्खं ।। हे आत्मन! तू इस ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा में ही नित्य प्रीतिवन्त हो, इसमें ही नित्य संतोष को प्राप्त हो और इससे ही तृप्त हो, तो तुझ उत्तम सुख प्राप्त होगा। ___ सुख प्राप्त करने का उपाय धर्म है, अज्ञानी प्राणी परिग्रह से अपना बड़प्पन मानते हैं और उसे जोड़ने में ही इस दुर्लभ मानव जीवन का व्यर्थ खो रहे हैं। मोही जीव जिस चिन्तन में लग रहे हैं, वह स्वप्नवत् असार है। बाहरी बातें, लोगों का समुदाय, लोगों में बड़प्पन की चाह आदिक जो कुछ भी ख्याल बन रहे हैं, वे सब एकदम असार व दुःख के कारण हैं | यह आत्मा एक ज्ञानानन्दस्वरूप
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