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जा कीड़ा, तो कर्तव्य क्या है कि उसे चूसकर अपना मुँह न बिगाड़ें, गन्ना बरबाद न करें, उसके पौर काटकर बो दें, तो उससे अनेकों मीठे गन्ने उत्पन्न होंगे। ऐसे ही यह मनुष्य जीवन है। इसमें तीन पोर हैं - बालपन, जवानी और बुढ़ापा । बालपन में अज्ञान रहता है । बुढ़ापे में कुछ किया नहीं जा सकता । केवल एक जवानी का समय ही ऐसा है कि जिसमें पुरुषार्थ करने की शक्ति है और ज्ञान प्रतिभा भी मिली हुई है, लेकिन उस जवानी के पोरों में (समय में) लग गया विषय-भोगों का कीड़ा और उसे विषयसुख में ही गँवा दें तो यह विवेक की बात नहीं हैं । विवेक तो यह है कि इस जवानी के समय में जिनवाणी का स्वाध्याय कर ज्ञानार्जन करें, इसे धर्म में, तपस्या में लगावें, जिससे अपने आपके ज्ञानस्वरूप की दृष्टि जगेगी ।
मोह, माया, ममता, क्रोध, मान, माया, लोभ, परिग्रह, तृष्णा आदि में समय बर्बाद न करें, बल्कि जीवन में एक दृढ़ संकल्प बना लें कि मुझे तो इस अंतस्तत्त्व का ज्ञान करना है और इस ही अंतस्तत्त्व में रमण करना है। इस कार्य के लिये यदि मुझे सर्वस्व त्याग करना पड़े तो वह भी कुछ कठिन नहीं है । सब कुछ किया जा सकता है। एक अपने आपके अविकार सहज ज्ञानस्वरूप की दृष्टि जगनी चाहिए | रह सहे समय का क्या मूल्य है, यह बात बिगड़ा हुआ समय बताता है कि व्यर्थ गया वह सब समय । सम्यग्ज्ञान बिना, सत्पथ पर चले बिना जैसे अब तक अनन्त भव खोये वैसे ही यह भव भी खोन में ही चला जायेगा ।
एक समय की घटना है कि जब कौरव पांडवों के युद्ध में अभिमन्यु मारा गया तो सुभद्रा माता उसके लिये बड़ा विलाप कर रही थी। तो वहाँ श्रीकृष्ण जी बहुत - बहुत समझाते हैं सुभद्रा माता को कि हे सुभद्रा माँ, अब तुम अधिक शोक न करो, शोक करने से
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