________________
एक कथानक है कि चार भाई थे । वे बहुत गरीब हो गये, तो उन्होंने सोचा कि बुवा के घर चलें तो 10-12 दिन खूब अच्छा भोजन मिलेगा। वे बुवा के घर पहुँच गये। बुवा बड़ी कंजूस थी । शकल देखते ही बुवा के हृदय में चूहे लोटने लगे । बुवाजी ने उन्हें बिठाया और पूछा कि तुम लोगों को खाने को क्या बनाएँ? तो वे बाले-पूड़ी, हलुआ वगैरह जो बनाना हो बनावो, जो बनावोगी वह हम खा लेंगे। तो बुवाने कहा, अच्छा तुम लोग जावो तालाब में स्नान कर आवो और मन्दिर में पूजा कर आवो, फिर आकर भोजन करो । वे चारों कपड़े उतार कर वहीं खाट पर सब कुछ रखकर तालाब में स्नान करने चले गये। एक घण्टा स्नान करने में लगा। एक डेढ़ घण्टा मन्दिर में पूजा करने में लगा । इधर बुवाने क्या किया कि उन चारों के कपड़े आदि जो कुछ रक्खे थे उन सबको उठाकर एक बनिया के यहाँ गिरवी रख दिया और आटा, घी, शक्कर आदि सामग्री लाकर हलुवा, पूड़ी बनायी। जब वे चारों वापिस आए तो सीधे खाना खाने बैठ गये । वे खाते जायें और आपस में बात करते जायें कि आज तो बुवाने बहुत बढ़िया भोजन खिलाया। बुआ बोली-खाते जाओ, बेटा तुम्हारा ही तो माल है । वे समझ न सके । वे तो जान रहे थे कि खिलाने वाला ऐसा ही कहता है । जब खा पीकर कपड़े पहनने गये, तो वहाँ देखा कि कपड़े ही नहीं हैं। पूछा- बुवाजी हमारे कपड़े कहाँ हैं? तो बुवा बाली कि मैं कहती न थी कि खूब खावो तुम्हारा ही तो माल है। इसका मतलब? मतलब यह कि मैंने तुम्हारे सामान को एक बनिया के यहाँ गिरवी रख दिया और वहाँ से आटा, घी, शक्कर आदि सामान लेकर बनाकर तुम्हें खिलाया । तो जैसे वे चारों भाई अपना ही तो खा रहे थे, पर भ्रम यह हो गया कि यह बुवाका खा रहे हैं, ऐसे ही हम आप जितना भी आनन्द पाते हैं वह अपने आपसे ही पात हैं, पर से नहीं । पर भ्रम ऐसा हो गया कि
712