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आत्मा के कल्याण की बात सोचना, सिंह के दाढ़ों तले आकर प्राण बचाने जैसी बात होगी । अतः वहाँ स्वाध्याय होना कठिन तो है ही, असंभव भी है। स्वर्ग के देवों का तो प्रायः विषय-भागों में ही चित्त जमता है। केवल यह नरभव ही ऐसा है, जहाँ जन्म लेकर मनुष्य अपने भूले रास्ते को छोड़कर, सत्यपथ पर आ सकता है, और स्वाध्याय के माध्यम से, भेदविज्ञान करके, आत्मा का कल्याण कर सकता है।
हमें स्वाध्याय का समय नियत कर लेना चाहिय और प्रतिदिन 1-2 घंटे स्वाध्याय तथा ज्ञानियों का सत्समागम करना ही चाहिये | यदि हमें सच्चा ज्ञान हो जाये, माह छूट जाये, तो दुःख भी छूट जाये | दुःख होता है, पर के संयोग के लक्ष्यपूर्वक संयोगी भाव अर्थात् माह, राग-द्वष भावों से | मरण में भय किसी के संयोग के कारण है, जैसे पुत्र-पुत्री, स्त्री-पुरुष आदि से ममत्व होता है। खद तो इस बात का है कि जब मर ही रहे हैं, ता फिर क्या धन, क्या चेतन पदार्थ और क्या अचेतन? कोई साथ तो जाना ही नहीं है, फिर चिन्ता ही क्या? शास्त्रज्ञान अथवा गुरूपदेश क निमित्त स उपार्जित ज्ञान ही ऐसा समर्थ है, जो दुःखों से बचा सकता है।
तीन व्यक्ति शास्त्र सुनते थे | शास्त्र स्वाध्याय से, प्रवचन से उन पर प्रभाव पड़ा | उनमें एक था लड़का, एक जवान और एक वृद्ध | तीनों ने सलाह की कि अगर तुम घर छोड़ दोग तो हम भी घर छोड़ देंगे और सब पूर्ववत् अपने-अपने काम में लग गय | एक दिन वृद्ध ने घर का त्याग करना विचारा | उसने तब गृहस्थी, धन-संपत्ति अपने पुत्र, स्त्री, भाई को यथायोग्य बाँट दी, फिर जवान की दुकान पर आया और कहने लगा कि वन को चलो। मैं तो सब घर-बार छोड़ आया हूँ | युवक बोला कि शीघ्र ही चलो | वृद्ध बोला-उठो और
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