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थी, वहाँ एक व्यक्ति आये, उन्होंने चिता की थोड़ी-सी राख उठाई और ये संकल्प किया कि आज मैं इस राख को अपने हाथ में उठाकर वर्णी जी की चिता की साक्षीपूर्वक आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का संकल्प लेता हूँ। ऐसा उन्होंनें इसलिये किया क्योंकि उनका वर्णी जी से बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध था । उनके पिता जी ने वर्णी जी को ब्रह्मचारी बनाया था। जब वर्णी जी ने सातवीं प्रतिमा का संकल्प लिया था, उस समय किसी साधु का सानिध्य नहीं था । उस समय इन्हीं के पिताजी ब्रह्मचारी गोकुल प्रसाद जी वहाँ बैठ हुये थे । उन्हीं के पास वर्णी जी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लिया था और वर्णी जी बार-बार इनसे भी कहते थे कि देखो तुम्हारे पिताजी से मेरा यह जीवन सात प्रतिमा से सम्पन्न हुआ है, अब आप भी ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लो । पर वे कभी भी साहस नहीं जुटा पाये ।
लेकिन जब वे वर्णी जी के अन्तिम संस्कार में नहीं पहुँच पाये और जब पहुँचे तो वहाँ केवल राख बची थी, जहाँ वर्णी जी का अन्तिम संस्कार किया गया था । वहाँ जाकर उन्हें इतना पश्चात्ताप हुआ कि काश वर्णी जी जीवित होते और मैं उनसे आशीर्वाद पूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत ले लेता तो कितना अच्छा होता, लेकिन मैं अपनी कमजोरी के कारण ब्रह्मचारी नहीं बन पाया और उन्होंने वर्णी जी की चिता की राख को हाथ में लेकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत को पालन करने का संकल्प ले लिया ।
इन विषय-भोगों में कहीं भी सुख नहीं है, इसलिये जीवन मं संयम और ब्रह्मचर्य ही श्रेयष्कर है। यदि मनुष्य होकर भी हम असंयम के गुलाम, इन्द्रियों के दास बने रहे तो अपना कल्याण कब करेंगे । हमें आज से ही अपने जीवन में इस ब्रह्मचर्य की साधना शुरू कर देनी चाहिये । यदि हम कुछ दिनों के लिये ब्रह्मचर्य व्रत का पालन
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