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पता चलता है कि साढ़े इकतालीस मन सोने की जितनी नथें बनती हैं, उतनी नारियों ने अपनी शील रक्षा क लिय अग्नि में अपने प्राणों की आहुति दी थी।
औरंगजब के शासन-काल का इतिहास कहता है कि नगर के बड़े-बड़े कुओं में मात्र स्त्रियों की लाशें ही दिखाई देती थीं, पानी की एक बूंद भी नहीं। उन से हम अनुमान लगा सकते है कि कितनी नारियों ने अपने शील की रक्षा के लिय कुँए में डूबकर अपने प्राणों का विसर्जन कर दिया, कि कुओं में पानी तक शेष नहीं रहा था।
यह शील रत्न यश और पुण्य को बढ़ाने वाला है, इसकी कोई उपमा नहीं है, शील को उपमा काह की दीजे । अर्थात् शील के लिये कोई उपमा दने योग्य पदार्थ नहीं है। यह सद्धर्मरूपी निर्मल रत्नों का पिटारा है। पापों का नाश करके उत्तम सुख देने वाला है, अत्यन्त पवित्र है। जो शीलव्रत का पालन करते है, वे इस लोक में राजा, प्रजा आदि सभी के द्वारा पूजे जाते हैं और परलोक में भी देवों के द्वारा पूज्य होते हैं।
मृगकच्छ नगर में सेठ जिनदत्त और सेठानी जिनदत्ता रहते थे। उनके नीली नाम की एक पुत्री थी। उस नगर में एक समुद्रदत्त नाम का सेठ भी रहता था। उसके सागर नाम का पुत्र था। एक दिन जिनालय में जिनेन्द्र भगवान की अर्चना करती नीली को अपने मित्र क साथ मन्दिर में आये हुये सागर दत्त ने देखा और वह उस पर मोहित हो गया तथा विचार करने लगा, इस रूपवती कन्या को कैसे प्राप्त किया जाये । इसी चिन्ता में कृश होता हुआ वह नीली को प्राप्त करन के लिये अपने पिता के साथ ढोंगी श्रावक बन गया। पिता-पुत्र का जैन समझ, श्रेष्ठी जिनदत्त ने अपनी पुत्री नीली का सागरदत्त क साथ
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