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अमृतमती रानी ने अपने कार्य में राजा यशोधर को कंटक के समान बाधक जान, उसे मारने के लिये यशोधर और यशोधर की माँ को भोजन के लिये निमंत्रित करके विषाक्त भोजन कराया। जिससे माँ और पुत्र दोनों को विष चढ़ गया । तत्काल वैद्यों को बुलाया गया लेकिन उनके (वैद्यों के) आने के पहले ही अमृतमती छल से "स्वामी को दृष्टिविष उत्पन्न हुआ है" इस प्रकार कहती हुई सभी लोगों को वहाँ से दूर कर बाल बिखेरकर हाय नाथ! हाय नाथ! ऐसा करुण क्रन्दन करती हुई यशोधर महाराज के वक्षस्थल पर गिर पड़ी और गला दबाकर उन्हें मार डाला तथा अष्टावक्र महावत के साथ स्वच्छन्दतापूर्वक भोग करने लगी । अन्त में गलित कुष्ठ से ग्रसित हो मरकर नरक में गई। इस प्रकार अमृतमती रानी ने अपने शीलरूपी अमृत को उगलकर, नीच महावत के मधुर स्वरों से मोहित हो, विषय रूपी विष का सेवन करके, नारी जगत को कलंकित किया ।
इसी प्रकार रानी वक्ता ने भी अपने पति के साथ छल किया था । अयोध्या नगरी में देवरति नामक राजा राज्य करता था । उसे रक्ता नामकी रानी अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी थी । उसके अत्यधिक प्रेम के कारण वह राज्य कार्य को छोड़कर अन्तःपुर में रहने लगा। मंत्रियों ने राजा से कहा- या तो आप राज्य का कार्य देखिये या फिर अपनी रानी को लेकर कहीं अन्यत्र चले जाइये । राजा रानी की तीव्र आसक्ति के कारण राज्य छोड़कर रानी को लेकर अन्यत्र चला गया। वहाँ पंगु कुबड़े काली के मधुर गान को सुनकर रानी वक्ता उस पर आसक्त हो गयी और अपने पति देवरति राजा को उसका जन्मदिन मनाने के बहाने पर्वत की ऊँची चोटी पर ले गई और वहाँ से धक्का देकर एक नदी में गिरा दिया तथा स्वयं उस पंगु काली के साथ रहने लगी। वह पंगु को एक टोकरी में
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