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मन को मदोन्मत्त हाथी के समान कहा गया है। स्वर्ग और मोक्ष को देने वाले ब्रह्मचर्य रूपी वृक्ष को विध्वन्स करने वाल इस मन रूपी मदोन्मत्त हाथी को रोकना चाहिये । जिस प्रकार मदोन्मत्त हाथी चलायमान होकर अपने स्थान से निकल भागता है, उसी प्रकार काम, विषय-वासना से उन्मत्त हुआ मनरूपी हाथी अपने समभाव रूप स्थान स निकल भागता है। इस काम न ऋषि, मुनि, देवता, हरिहर ब्रह्मा आदि को भ्रष्ट करके अपने अधीन किया है। ब्रह्मचर्य का विरोधी अब्रह्म (काम) है । सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य नमिचन्द्र जी द्वारा जीवकान्ड में अब्रह्म क चार कारण बताये गये हैं- इनसे सदा बचकर रहना चाहिये - 1. कामोद्दीपक आहार करने से | 2. विषय-भोग सम्बन्धी चिन्तन करने से | 3. कुशील व्यक्तियों की संगति करने से | 4. वेद नामक कर्म की उदीरणा होने से |
1. कामोद्दीपक आहार करने स - इन्द्रियों को उत्तेजित करने वाला गरिष्ठ आहार कामोद्वीपक आहार कहलाता है। ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिये गरिष्ठ आहार नहीं करना चाहिये | ब्रह्मचर्य से अस्वादव्रत बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाला है, दवा या पानी के समान | जिस प्रकार इन दोनों का भक्षण करते समय स्वाद नहीं लिया जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य का पालन करने क लिए (ब्रह्मचारी को) भोजन बिना स्वाद का होना चाहिये । यदि कोई अपनी जिव्हा इन्द्रिय को जीत ले, तो ब्रह्मचर्य सहज से पल जाता है। गरिष्ठ भोजन करना और अधिक शृंगार करना ब्रह्मचर्य में बाधक है। नगरसेठ का एक पुत्र बहुत ही सुशील एवं विवेक वान था। सेठ
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