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पुत्र को वन में भेज दिया था पढ़ने के लिये और कहा था कि यह बच्चा पढ़ लिखकर लौटकर घर न आये, तो हम अपनी कोख को सार्थक समझेंगे | जब बच्चे को झूले में झुलातीं थीं, तब कुन्दकुन्द आचार्य की माँ कहती थीं
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि । संसार माया परिवर्जतोऽसि । ।
अर्थात्, हे पुत्र ! तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है, संसार की ओर तू सो जा । यह है उत्कृष्ट माँ की भावना |
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यदि हम वास्तविक सुख-शान्ति चाहते हैं, तो इतना संकल्प कर लें कि जहाँ तक हो सकेगा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेंगे । एक दिन का ब्रह्मचर्य व्रत भी महाव्रत का कार्य कर सकता है । व्रत धारण करना नर - पर्याय का सार है । और समस्त व्रतों का सार ब्रह्मचर्य में है । संस्कृत में एक श्लोक आता है।
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अड़क्स्थाने भवेच्छीलं शून्याकारं व्रतादिकम् । अड्क्स्थाने पुनर्नष्ट, सर्वशून्यं व्रतादिकम् । ।
शून्य किसी भी अंक को दशगुणा कर देता है, परन्तु अंक के बिना शून्य का कोई महत्त्व नहीं है । इसी प्रकार शीलव्रत के बिना अन्यव्रत अंक रहित शून्य के समान ही हैं । किन्तु शील संयुक्त होते ही कई गुणे महत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं । ऐसे ही शील की प्रशंसा करते हुये लिखा है
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शीलन हि त्रयो लोकाः, शक्या जेतुं न संशयः । नहि किंचिदसाध्यं त्रैलोके, शीलवतां भवेत् ।।
शील से तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की जा सकती है, इसमें
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