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आना, माता-पिता के शील स्वभाव पर निर्भर है।
एक बार दंडकवन में जब राम लक्ष्मण सीता जी को ढूंढ रह थे, तो रास्ते में उन्हें सीता जी के कुण्डल, हार, कंगन, मिले | रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण से कहा-लक्ष्मण! पहचानो क्या ये आभूषण सीता के हैं? तब लक्ष्मण जी ने एक ही उत्तर दिया कि मैं सीता माता के कंगन, हार कैसे पहचान सकता हूँ? मैं ता सीता माता के सिर्फ नूपुर ही जानता हूँ, क्योंकि मैंने आज तक सीता माता के पैर ही छुय हैं। किन्तु शेष आभूषणों पर कभी ध्यान ही नहीं गया। इसी को वाल्मीकि रामायण में लिखा है -
नाऽहं जानामि के मूरे, नाऽहं जानामि कुण्डले |
नूपराण्यैव जानामि, नित्यं पादामि बन्दनात् ।। पहल भाभी को माँ-जैसा और भाई को पिता जैसा दर्जा दिया जाता था। और देखा सीता जी ने अपने स्वदार संतोष व्रत का दृढ़ता के साथ पालन किया, जिसकी महिमा सभी ने देखी । सीता जी ने अग्नि कुण्ड में प्रवश करते समय कहा था-हे अग्नि! यदि मैंने स्वप्न में भी पर-पुरुष का स्मरण किया हो, तो तू मुझे क्या जलायेगी, मैं ता पहले ही जल गई और यदि मैं पवित्र हूँ तो भी तू मुझे क्या जलायेगी, तुझमें मुझे जलान की शक्ति ही नहीं है । और सीता जी के प्रवेश करते ही अग्नि कुण्ड, जलकुण्ड में बदल गया, सिंहासन की रचना हो गई। यह सब सीता जी के स्वदार-संतोष व्रत का प्रभाव था।
यदि हम वास्तव में ब्रह्मचर्य की साधना करना चाहते हैं, तो हमारी दृष्टि में मात्र तीन ही नाते रहना चाहिये | माता का, बहिन का और पुत्री का।
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